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नही है और न तू कभी उन पदार्थो का हो सकता है। अतः विवेक ज्ञान का आश्रय कर, अपना हित सोच, शान्ति से कुछ रहने का यत्न तो बना, पर की और दृष्टि देने से अशान्ति ही होती है क्योकिं उपकार है स्वाश्रित और इस उपकार को तुमने अपनी कल्पना से बना लिया पराश्रित तो ये परपदार्थ भिन्न है, असार है अध्रव है तब इनकी और लगा हुआ उपयोग हमें कैसे शान्ति का कारण बन सकता है?
आत्मध्यान का आदेश भैया ! आत्मध्यान ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । एतदर्थ वस्तु का सम्यग्ज्ञान चाहिए, स्वतंत्र - स्वतंत्र स्वरूप का भान होना चाहिए और इसके लिए कर्तव्य है कि हम ज्ञानार्जन में अधिकाधिक समय दें। गुरूजनों से पढ़े, चर्चाएँ करके, ज्ञानाभ्यास करके अपना उपयोग निर्मल बनाएँ। इस प्रकार यदि ज्ञान की रूचि जगी, धर्म की रूचि बनी तो हमें शान्ति का कुछ मार्ग मिल सकेगा, अन्यथा बहिर्मुखी दृष्टि में तो शान्ति नही हो सकर्ती। इसे इन शब्दो में कहा गया है कि है आत्मन् ! तू पर के उपकार में अभी तक लगा रहा, अर्थात् तेरा जो यह शरीर है वह पर है, और तू इन देहादिक के उपकार में अभी तक जुटा रहा। इसकी और से अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनन्दनिधान अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनन्दनिघान अपने शुद्व चिदानन्दस्वरूप को निरख । इसके अनुभव में जो आनन्द बसा हुआ है वह आनन्द संसार में किसी भी जगह न मिल सकेगा। इस कारण अपने उपकार के लिए तत्वज्ञान का उपाय कर ।
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गुरूपदेशादभ्यासात्संवितै
: स्वपरान्तरम् ।
जानाति यः स जानाति मोक्ष सौख्यं निरन्तरम् । ।33।।
ज्ञानार्जन के उपायो में दिग्दर्शन - जो जीव गुरूओ के उपदेश से अथवा शास्त्र के अभ्यास से अथवा स्वात्मतव के अनुभव से स्वपर के भेद को जानता है वही पुरूष मोक्ष के सुख को जानता है। यहां तत्वज्ञान के अर्जन के उपाय तीन बताये गए है। पहिला उपाय है गुरू का उपदेश पाना, दूसरा उपाय है शास्त्रो का अभ्यास करना और तीसरा उपाय है स्वयं मनन करके भेदविज्ञान अथवा स्वसम्वेदन करना। इन तीन उपायो में उत्तरोत्तर उपाय बडे है। सबसे उत्कृष्ट उपाय स्वसम्वेदन है। मोक्ष सुख के अनुभव करने के उपायों में सर्वोत्कृष्ट उपाय स्वसम्वेदन है। उसके निकट का उपाय है शास्त्रभ्यास और सर्व प्रथम उपाय है गुरूजनों का उपदेश पाना ।
गुरूस्वरूप का निर्देशन गुरू वे होते है जो बाह्रा और आभ्यंतर परिग्रहो से विरक्त रहते है। बाह्रा परिग्रह है 10 । खेत, मकान, अन्न आदि धान्य, रूपया रकम, सोना चाँदी, दासी, दास, बर्तन और कपड़े। इन दसों में सब आ गए और अन्तरंग परिग्रह है 14, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ और 9 प्रकार की नो कषाये। इन 14 परिग्रहो के और 10 परिग्रहो के जो त्यागी होते है उन्हें गुरू कहते है। गुरू आत्मतत्व का कितना अधिक रूचिया है कि
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