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________________ जिसके सिवाय एक स्वानुभाव की वाञछा के अन्य कुछ वाञछ नही है। वे ज्ञानध्यान तपस्या में ही जो निरत रहते है। तप, ध्यान व ज्ञान में परस्परता ज्ञान, ध्यान और तप में सबसे ऊँचा काम है ज्ञान । ज्ञान न रह सके तो दूसरा काम है ध्यान और ध्यान भी न बन सके तब तीसरा काम तप । यहाँ ज्ञान से मतलब साधारण जानकारी नही है किन्तु रागद्वेषरहित होकर केवल ज्ञाताद्रष्टा नही रह सकता तो उसके लिए दूसरा उपाय कहा गया है ध्यान । ध्यान में चित एकाग्र हो जाता है और उस एकाग्रता के समय में धर्म की और एकाग्रता के काल में इसका विषयकषायो में उपयोग नही रह पाता, इस कारण यह ध्यान भी साधु का द्वितीय काम है और तपस्या भी साधुओ का काम है। - बाह्वा तपो में अनशन, ऊनोदर व वृत्तिपरिसंख्यान का निर्देश तपों में बाह्रा तप 6 है अनशन करना, भूख से कम खाना और अपनी अंतरायो की परीक्षा करने के लिए कर्मों से मैं कितना भरा हुआ हूं, इसकी परीक्षा करने के लिए नाना प्रकार के नियम लेकर उठना, रसपरित्याग, विविक्त्शय्यासन व कायक्लश। पुराणों में आया है कि एक साधु ने ऐसा नियम लिया था कि कोई बैल अपनी सीगं में गुड़ की भेली छेदे हुए दिख जाय तो आहार करूँगा। अब बतलाओं कहाँ बैल और कहाँ गुड़ और सींग में भेली दिखे, किसी समय दिख जाय यह कितना कठिन नियम लिया था? कितने ही दिनो तक उनका उपवास चलता रहा। आखिर किसी दिन कोई बैल किसी बनिया की दूकान के सामने से निकला, उस बैल ने गुड़ की भेली खाने को मुंह दिया, उस बनिया ने उस बैल को भगाना चाहा तो ऐसी जल्दबाजी के मारे बैल की सींग में भेली छिद गयी। जब वह बैल सामने से निकला तो मुनि महाराज की प्रतिज्ञा पूरी हुई और आहार लिया। यह सम्बंध अपने आपके भीतर से है, लोकदिखावे के लिए नही कि हम 10 जगह से लौटकर आयेंगे, लोगो में भब्बड़ मचेगी और आपस में चर्चा चलेगी कि महाराज की आज विधि नही मिली, क्या इनकी विधि है, यह तो बड़ाभारी तप कर रहे है । साधु कभी अपने अंतराय की परीक्षा करना चाहें तो करते है। समाज के बीच ही रहते हुए कौन सा कार्य ऐसा खिर गया है जिससे परीक्षा करने की मन में ठानी कि हम परीक्षा करेंगे अंतराय की । यह बहुत दुर्घर तप है। इसका अधिकारी एकांतवासी बनवासी बड़ा तपस्वी हो वह हुआ करता है। - रस परित्याग, विविक्त शय्यासन व कायक्लेश तप का निर्देश व तपों की आदेयतारस परित्याग एक दो रस छोड़ना - सब रस छोड़ना, रस छोड़कर भोजन करना रस परित्याग तप है। एकांत स्थान में सोना, उठाना, बैठना, रहना यही विविक्त शय्यासन है, और गर्मी में गर्मी के तप, शीत में शीत के तप और वर्ष काल में वृक्षों के नीचे खड़े होकर ध्यान लगाने का तप और-और प्रकार के अनके काय क्लेश हो, इन बाह्रा तपों को ये साधुजन किया करते है । तपस्या में उपयोग रहने से विषयकषायो से चित हट जाता है - 140
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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