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है। प्रत्येक पदार्थ है, अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नही है। दूसरी बात यह है। तीसरी बात- अपने में यह द्रव्यत्वगुण रखने के कारण निरन्तर परिणमता रहता है। चौथी बात अपने में ही परिणमता है किसी दूसरे में नही। 5 वी बात - अपने प्रदेश से है। छठवी बात - किसी न किसी के ज्ञान द्वारा प्रमेय है। इन 6 साधारण गुणो के वर्णन से आप यह देखेगे कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है।
अपनी वेदना मेटने का इलाज - कोई भिखारी यदि जाड़े के दिनो में सुबह तीन चार बजे तड़के चक्कर लगाकर कपड़े माँगता है और आप लोग उसे कपड़े दे दें तो कही आप उस भिखारी का उपकार नही कर रहे है लेकिन व्यवहार में माना तो जा रहा है, परन्तु वहाँ क्या किया जा रहा है कि उस भिखारी की स्थिति जानकर अपने कल्पना करके खुद ही दुःखी हो गए, कुछ वेदना हो गयी, ओह यह कैसा दुःखी है? ऐसी कल्पना जगने के साथ आपके हृदय मे वेदना हो गयी। उस वेदना को मिटाने का इलाज आप और क्या कर सकते है ? आपने अपना ही उपकार किया, उस भिखारी का कुछ उपकार नही किया। जो जीव अपने में यह निर्णय किए हुए है कि मेरा सुख, दुःख मेरे परिणमन से ही है, कोई अन्य जीव मुझमें कुछ परिणति नही बना देता है। भले ही बाहर में निमित्तनैमित्तिक सम्बंध है लेकिन परिणमना तो खुद की ही कला से पड़ रहा है। मैं किसी का कुछ करता भी नही हूं। जिसमें जैसी कषाय उत्पन्न होती है उस कषाय की वेदना को शान्त करने का वह प्रयत्न करता है।
ऋषि संतो की कृति में आत्मोपकार का लक्ष्य - जैन सिद्वान्त तो यह प्रकट कर रहा है कि ये आयार्चदेव जिन्होने इन हितकारक ग्रन्थों को लिखा है जिनको पढ़कर हम आप अपनी शक्ति के अनुसार अपना उपकार कर लेते है, इन आचार्यों ने भी वस्तुतः हमारा उपकार नही किया है किन्तु उन्होने जो हम पामरों पर करूणा बुद्वि करके स्वयं में वेदना की थी, उन्होने भी उस वेदना को शान्त करने के लिए यत्न किया है।लोग इस बात की हैरानी मानते है कि मैने अपने पुत्र को इतना पढ़ाया, इतना योग्य बनाया, पर आज यह मुझसे विपरीत चलता है, ऐसा लोग खेद मानते है किन्तु तत्वज्ञान का उपयोग करें तो खेद नही माना जा सकता है। मैने सर्वत्र अपने मन के अनुकूल अपनी वेदना को शान्त करने के लिए श्रम किया है, मैने दूसरे जीव का परमार्थतः कुछ नही किया है। अब जिसकी जो परिणति है वह अपनी परिणति कर रहा है। मेरा जो कुछ कर्तव्य है वह मुझे करना चाहिए ऐसा ज्ञानी जीव के चित्त में विवेक रहता है। इस कारण वह कभी अधीर नही होता।
समय के सदुपयोग का अनुरोध - भैया ! मनुष्य जीवन और यह श्रावककुल, जैनधर्म के सिद्वान्त के श्रवण की योग्यता सब कुछ प्राप्त करके इस समय का सदुपयोग करना चाहिए। समय गुजर रहा है उम्र निकली जा रही है, मरण के निकट पहुंच रहे है ऐसी स्थिति में यदि सावधान न हुए तो यह होहल्ला तो सब समाप्त ही हो जायगा। तुम
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