SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्पन्न होती है, पर यह तरंग भी बहुत समय तक कहाँ ठहर सकेगी? ये शब्द न मेरे को अभी काम देते है, न आगे काम देंगे। शान्ति का मूल उपाय तत्वज्ञान - ज्ञानी तो अपने ज्ञान के प्रकाश का रूचिया है और दूसरे जन भी इस ज्ञान का प्रकाश पायें, वस्तु का जो स्वतंत्र स्वरूप हे वह सबकी दृष्टि में आए और सुखी हो जाएँ ऐसी भावना करता है। सुखी होने का मूल उपाय तत्वज्ञान है। अनेक उपाय कर डालिए, कितना ही धनसचंय कर लो पर धन से भी शान्ति नही। कितनी भी लोक में इज्जत बना लो पर इज्जत से भी शान्ति नही। जो जो उपाय करना चाहें आप कर डाले, पर एक तत्वज्ञान के बिना सारे उपाय शांति के लिए कार्यकारी नही है। जब भी जिसे शान्ति मिलनी होगी इस ही मार्ग से मिलेगी, खुद को खुद के यथार्थ ज्ञान से शान्ति मिलेगी। भेदविज्ञान का बड़ा महत्व है। कोई भी विपदा हो, विपदा कुछ भी नही, परपदार्थ के परिणमन अपने मन के अनुकूल न जंचे ऐसी कल्पना करते रहना बस यही विपदा है । विपदा भी किसी तत्व का नाम नही है। ऐसे चाहे लौकिक विपदा के प्रसंग भी आएँ किन्तु यह तत्वज्ञानी जीव अपने को सबसे न्यारा अमूर्त ज्ञानानन्द स्वभावरूप अनुभव करता है, इसके प्रताप से उसे कभी क्लेश नही होता है। कदाचित् क्लेश माने तो यह उसके किन्ही दो तक अज्ञान का ही प्रसाद हे। आचार्यदेव का आत्मोपकार का उपदेश - आचार्य देव यहाँ यह कह रहे है कि तू पर का उपकार तजकर अपने उपकार में लग। यहाँ धन वैभव, इज्जत लोकसम्पदा को पर कहा गया है। उनके उपकार को तज और एक अपने उपकार में लग। अपना उपकार है निज को निज पर को पर रूप से जान लेना। गुप्त ही गुप्त कल्याण होता है, दिखावट, बनावट, सजावट से कल्याण नही होता है। भेदविज्ञान की तब तक शरण गहो जब तक सर्व विकल्प समाप्त न हो जाएँ। इस जीव को यथार्थ में संकट कुछ भी नही है। आज हम आप कितनी अच्छी स्थिति में ह, कीडे, मकोड़े, पतंगो को देखो उनकी क्या दयनीय स्थिति है, अथवा मनुष्यो मेंही देखो कोई भिखारी जनों की एसी दयनीय स्थिति है कि जिनको कई दिनो तक भी खाने का ठिकाना नहीं है, उनकी अपेक्षा हम आप आज कितनी अच्छी स्थिति में है, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि जैन सिद्वान्त का पाना अति दुर्लभ है। जैन सिद्वांत एक ऐसे तत्वज्ञान का प्रकाश करता है कि जिस ज्ञान के आने पर सदा के लिए संकट काट लेने का उपाय मिलता है। पदार्थो का स्वतातन्त्रय स्वभाव - वस्तु के सम्बंध में जैन सिद्वान्त ने एक गहरी दृष्टि से प्रतिपादन किया है। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है। ये जो दृश्यमान पदार्थ पुदगल स्कंध है ये एक चीज नही हैं, ये अनन्त परमाणुओ का पुत्रज है। इनमें जो एक-एक परमाणु हे वह द्रव्य है, यो एक-एक जीव करके अनन्त जीवद्रव्य है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और एक अंसख्यात कालद्रव्य है। प्रत्येक पदार्थ 6 साधारण गुणो करके परिपूर्ण 136
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy