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________________ शरीर जीव का शत्रु है। जीव का अहित इस शरीर के कारण हो रहा है अतएव यह शरीर शत्रु की तरह है लेकिन मोह में इसने मान लिया मित्र । यह शरीर मेरा बड़ा उपकारी है इतना भी भेद नही करता कि शरीर है सो मै हूं। मुझे अपना काम करना है, शरीर का काम करना है, यह भी नही किन्तु उसे आत्मा स्वीकार कर लिया और उस पर के उपकार में यह मोही जीव लग गया है। सो जहाँ यही कहा गया है कि प के उपकार को तज, निज के उपकार में लग। जिन प्रसंगो में अन्य जीवो का उपकार किया जा रहा है वहाँ भी यह जीव यदि यह ध्यान रख रहा है कि मैं इस पर का उपकार का काम कर रहा हूं तो भी उसने गलती की। उसने पर माना है इस शरीर को तो वह भी जड़ के काम करता है। परमार्थतः पर के उपकार की अशक्यता - जो ज्ञानी पुरूष है वह अन्य जीवों का उपकार करके यह ध्यान में लेता है कि मैनें किसी पर का उपकार नही किया है, किन्तु अपने ही आत्मा को विषय कषायो से रोककर अपना भला किया है। कोई जीव वस्तुंत किसी पर का उपकार कर ही नही सकता है। प्रत्येक जीव अपना ही परिणमन कर पाते है। जो जीव वस्तुस्वरूप से अबभिज्ञ है उन्हें शान्ति संतोष किसी क्षण नही मिलता है क्योकि शान्ति का आश्रय जो स्वंय है जिसके आलम्बन से शान्ति प्रकट होती है, उसका पता नही है तो बाहर ही में किसी परपदार्थ में अपनी दृष्टि गड़ायेगा । होगा क्या कि पर तो पर ही है, उनमें दृष्टि अपनी रखने से बहिर्मुख बनने से स्वंय रीता हो गया। अब इसे कुछ शरण नही रहा। जो तत्वज्ञानी पुरूष है वे जानते है कि मेरा स्वरूप ही मेरा शरण है । उन्हें किसी भी पदार्थ में, वातावरण में, स्थिति में विहलता नही होती है । वे सर्वत्र स्वतंत्र वस्तु का स्वरूप निरखते रहते है । शब्दजाल से आत्मा का असम्बन्ध - सारा जहान यदि प्रशंसा करे, यश करे तो भी उन प्रशंसा के शब्दो से ज्ञानी के चित्त मे क्षोभ नही होता है । क्योकि वह देख रहा है कि ये सब भाषावर्गणा के परिणमन है, इन शब्दो का मुझ आत्मा में रंच प्रवेश नही है और न कुछ परिणमन ही कर सकते है । ऐसी स्वतंत्रता का भान होने से यह तत्वज्ञानी जीव प्रंशसा के शब्दो को सुनकर भी क्षोभ नही लाता है । हर्ष भी एक क्षोभ है। जो लोग प्रशंसा सुनकर मौज मानते है वे बहिर्मुख बनकर कषाय कर्मकलंक अपने में बरसाते है, उसका फल दुर्गतियो में भ्रमण करना ही है। कौन से शब्द इस जीव का क्या कर सकेगे ? न इस भव में ये सब सहायक है और न पर भव में सहायक है। लोग आज भी ऐसा कहा करते है कि पुराने जो महापुरूष हुए है कृष्ण, महावीर आदि, हम उनके शब्दो का रिकार्ड कर ले, लेकिन जो शब्द परिणत हो जाते है । वे दूसरी क्षण में उस पर्यायरूप मे नही रहते है। वे रिकार्ड कहाँ से हो सकेंगे? ऐसे ही ये शब्द जब कहने के बाद ही समाप्त हो जाते है । कुछ काल तक यदि ये गूँजते है तो उसके भी गूँजने का कारण यह है कि शब्दवर्गणा के निमित्त से अन्य वर्गणायें शब्दरूप परिणम जाती है और यों बिजली की तरह इसमें भी तरंग 135
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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