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________________ प्यास तो न मिट जायगी। ऐसे ही शान्ति आती है शुद्ध ज्ञान से। शुद्ध ज्ञान का प्रकाश हो वहाँ शान्ति है, हम ज्ञानप्रकाश को ही न चाहें और वही ममता तृष्णा वही कषाय निकलती रहें तो धर्म पालन कहाँ हुआ? वह तो केवल बात ही बात है। कषायपरित्याग से शान्ति का उद्भव – अनन्तानुबंधी क्रोध बताया है जहाँ धर्म के प्रसंग में भी क्रोध आए। और जगह क्रोध आए वह उतना बुरा नही है। अनन्तानुवंधी मान बताया है कि धर्मात्माजनों के सामने अपना अभिमान बगराये। और जगह अभिमान करे वह प्रबल अभिमान नही कहलाता मगर धर्मात्माजनो के समक्ष भी अपना मान करे। मंदिर में आये तो हाथ जोड़कर नमस्कार करने तक में भी हिचकिचाहट हो या अन्य साधु संतो के प्रति, सधर्मी जनो के प्रति धर्म के नाते से धर्मीपन को दिखने के कारण अभिमान कोई बगराये तो उसे अनन्तानुबंधी मान कहते है। धर्म के मामले में कोई माया करे, छल, कपट करे तो उसे अनन्तानुबंधी माया कहते है, और धर्म के ही प्रसंग में कोई लोभ करे तो उसे अनन्तानुबंधी लोभ कहते है। जहाँ अनन्तानुबंधी कषाय वर्त रही हो वहाँ आनन्द के स्वप्न देखने से आनन्द का काम कैसे पूरा किया जा सकता है ? इस तत्वज्ञान की बात को हृदय में धरे और विवेकियो से उपेक्षा करे तो यह जीव अपना प्रभाव बढ़ा सकता है और कल्याण कर सकता है। परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो वर्तमानस्य लोकवत् ।।32 ।। स्वोपकार का ध्यान - हे आत्मन् ! तू परोपकार को छोड़कर स्वोपकार में रत रह। अज्ञ लोक की तरह मूढ बनकर दृश्यमान शरीर आदि परपदार्थो में उपयोग को क्यों कर रहा है? इस श्लोक में शब्द तो ये आये है कि तू परके उपकार को तज दे और अपने उपकार में लग। यह सुनने में कुछ कटु लग रहा होगा कि पर के उपकार की मनाही की जाती है। पर के मायने है शरीरादिक बाहापदार्थ। तू शरीर का, धन वैभव का उपकार करना छोड़ दे और आत्मा जिस तरह शान्ति सन्तोष में रह सके वैसा उपकार कर। जैसे कोई मूढ अज्ञानी शत्रु को मित्र समझकर रात-दिन उसकी भलाई में लगा रहता है। उसका हित हो, अपने हित अहित का कुछ भी ध्यान नही रखत है। भ्रम हो गया। है तो शत्रु पर मान लिय मित्र। कोई मायाचारी छली कपटी पुरूष है और उसका इतना मीठा बरतावा है कि हमने उसको अपना मान लिया। अब अपना मानने के भ्रम से उसके उपकार में बुद्वि रहती है। पर क्या वह हित कर देगा, क्या हानि कर देगा? इस और यह ध्यान नही रखता है। उसके हित की साधना में ही अपना सर्वस्व सौपं देता है। तत्वज्ञान से स्वोपकार की रूचि - जब इसको यह परिज्ञान हो जाता है कि मेरा मित्र नही है, शत्रु है, तभी से यह मनुष्य उसका उपकार करना छोड़ देता ह। यो ही यह 134
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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