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यह भी स्मरण नही रहता कि मेरा देह है, मेरा घर है। केवल एक कल्पना ही रहा करती है। कोई काम धुनिपूर्वक कर रहे हो, उसमें किसी तत्व की धुन लगी हो तो अपने शरीर का भी भान नही रहता है। कोई एक तत्व ज्ञान में रहता है। अब तो जाननहार तत्व है उस ही का स्वरूप काई जानने में लग जाये, ऐसी धुन बने तो उसे इस देह का भी भान नही रहता है, जिस पर दृष्टि हो उसका ही स्वाद आता है चाहे कही बस रहे हो, जहाँ दृष्टि होगी अनुभव उसका ही होगा।
दृष्टि के अनुसार स्वाद – एक छोटी सी कथानक है- किसी समय सभा में बैठे हुए बादशाह ने बीरबल से मजाक किया बीरबल को नीचा दिखाने के लिए। बीरबल! आज हमें ऐसा स्वप्न आया है कि हम और तुम दोनो घूमने जा रहे थे। रास्तं में दो गड्ढे मिले, एक में शक्कर भरी थी और एक में गोबर, मल आदि गंदी चीजें भरी थी। सो में तो गिर गया शक्कर के गड्ढे में और तुम गिर गये मल के गड्ढे में। बीरबल बोला - हजूर ऐसा ही स्वप्न हमें भी आया। न जाने हम और आपका कैसा घनिष्ट सम्बन्ध है कि जो आप देखते स्वप्न में सो ही मै देखता। सो मैने स्वप्न में देखा कि हम और तुम दोनों घूमने जा रहे थे, रास्ते में दो गड्ढे मिले। एक था शक्कर का गड्ढ़ा और एक था मल, गोबर आदि का गड्ढा। शक्कर के गड्ढे में तो आप गिर गये और मै गोबर मल के गड्ढे में गिर गया, पर इसके बाद थोड़ा और देखा कि आप हमको चाट रहे थे और हम आपको चाट रहे थे। अब देखो- बादशाह को क्या चटाया ? गोबर, मल आदि, और स्वंय ने क्या चाटा? शक्कर। तो कहाँ हम पड़े है, कहा विराजे है, इसका ख्याल न करना, किन्तु जहाँ दृष्टि लगी है उस पर निगाह करना। स्वाद उसी का आयगा जहाँ पर दृष्टि लगी है। यह ज्ञानी गृहस्थ अनेक झंझटो में फंसा है, घर में है, कितना उत्तरदायित्व है ऐसी स्थिति में रहकर भी उसकी दृष्टि वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर है। अपने सहज ज्ञानस्वरूप का भान है, उस और कभी दृष्टि हुई थी। उसका स्मरण है तो उसको अनुभव और स्वाद परमपदार्थ का आ रहा है।
श्रद्वाभेद से फलभेद - कोई पुरूष बड़ी विद्याएँ सीख जाए, अनेक भाषाएँ जान जाय, और ग्रन्थो का विषय भी खूब याद कर ले, लेकिन एक सहजस्वरूप का भान न कर सके औश्र अपनी प्रकट कलावों द्वारा विषयो के पोषण में ही लगा रहे तो बतलावों कि ऐसे जानकारो के द्वारा स्वाद किसका लिया गया? विषयो का, और एक न कुछ भी जानता हो और स्थिति भी कैसी हो विचित्र हो, किन्तु भान हो जाय निज सहजस्वरूप का तो स्वाद लेगा अंतस्तत्व का आनन्द का। भैया ! श्रद्वा बहुत मौलिक साधन है। हो सकता है कि पुशु पक्षी, गाय, बैल, भैस, सूवर, गधा, नेवला, बंदर आदि ये अंतस्तस्व का स्वाद करलें अर्थात् ब्रहास्वरूप का अनुभव कर ले, इस ज्ञानशक्ति का प्रत्यय करलें - मैं ज्ञानानन्दमात्र हूं| जो जिस से बोल भी नही सकते, जिनकी कोई व्यक्ति भी नही हो पाती है। कहो उन जीवों में से कोई निज सहजस्वरूप का भान कर ले और बहुत विद्यावों को पढ़कर भी न कर सके
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