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न जाय, दोषो पर ही दृष्टि जाय तो ऐसी वृत्ति और भी अनेक छोटे मोटे कीड़े मकोड़ो में भी होती है। जोंक गाय के स्तन में लग जाय तो दूघ को ग्रहण नही करती है, खून को ही ग्रहण करती है और उसमें भी अच्छे खून का ग्रहण नही करती किन्तु खोटे गंदे खून का ही ग्रहण करती है। हम ऐसी आदत क्यो व्यर्थ में बनाएँ, हमको क्या पड़ी है इसकी?
स्नेह बन्धन - जब यह चित्त नही भ्रमता बाहा पदार्थो में, विशेषतावो का विस्तार नही बनाता तब यह जीव बँधता नही है। स्नेह ही विकट बन्धन है। मोह मय जगत में मोहमय स्नेह की तारीफ की जाती ह, किन्तु अध्यात्म जगत मे स्नेह को बन्धन बताया गया हे। आत्मज्ञ योगी जिस समय ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्व में रत होता है उसकी प्रवृत्ति शरीरादि बाहा पदार्थो में नही होती है। उन्है बाहा में अच्छे बुरे का ज्ञान भी नही रहता। इष्ट अनिष्ट संकल्प विकल्प न होने से रागद्वेष रूप परिणति नही होती। हम यह न सोचे कि यह साधु संतो के करने योग्य बात गृहस्थावस्था में क्यो जानी जाय ? यहाँ यह भावो का सौदा इस ही प्रकार का है। ऊँचा भाव बन गया, ऊँची दृष्टि बन गयी तो छोटे मोटे व्रत आसानी से पल सकेगे। यहाँ ऐसा माप तौल न चल सकेगा कि हम जितने व्रत करें उतनी भर दृष्टि रक्खें, उससे आगे हम क्यों चले? दृष्टि बल होने पर थोड़ा बहुत आचरण बना भी सकते है, ऐसे ज्ञान के रूचिया अध्यात्मयोगी के शुभ-अशुभ पुण्य-पाप आदि का बन्धन नही होता है, प्रत्युत छुटकारा मिल जाता है।
ज्ञानी की विशेषो की उपेक्षा – यह ज्ञानी पुरूष ज्ञानमय स्वरूप के अनुभवन से एक अनुपम आनन्द के स्वाद को पा चुका है। अब यह दो भिन्न वस्तुवो के मिलाप से होने वाले जो विषय क्षणिक सुख है उसका स्वाद लेने में असमर्थ हो गया है, वह तो अपने वस्तुस्वरूप को ही अनुभव रहा है, यह अपने ज्ञानानुभव के प्रसाद से विवश हो गया है, विषयो में नही लग सकता अब । अब अन्य बातों की तो कथा छोड़ो, अपने आप में उदित ज्ञान के विशेषो को भी गौण कर रहा है। जैसे दौड़ता हुआ पुरूष जिस जमीन पर से दौड़ रहा है उस जमीन को नही निरखता है, उस जमीन से गुजर रहा है, निरख रहा है किसी अन्य लक्ष्य को। ऐसे ही यह ज्ञानी इस ज्ञान के ज्ञान से गुजर रहा है, पर जो ज्ञान विशेष है, ज्ञेयाकार है उस ज्ञेयकार को नही ग्रहण कर रहा है, एक निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप को ग्रहण कर रहा है। उसके ज्ञान की एकता होने से जो एक विशुद्ध आनन्द जगता है उसके आगे सब रस फीके हो जाते है।
औपाधिक भाव परिणत वस्तु में भी सहजस्वरूप का भान - भैया ! दर्पण मे दर्पण की स्वच्छता भी है, और दुनिया के जो भी सामने पदार्थ है, उनका प्रतिबिम्ब भी हे। जो विवेकी होगा वह तो प्रतिबिम्बित दर्पण में भी स्वच्छता का भान कर सकता है। न होती स्वस्छता तो यह प्रतिबिम्ब भी कहाँ से होता, किन्तु विवेकी पुरूष जिस दर्पण में पूरा ही प्रतिबिम्ब पड़ा हुआ है, किसी कोने में भी स्वच्छता नजर आती है, इसको तो वह दर्पण का
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