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________________ स्वरूप नही मानता। ऐसे ही यह ज्ञानी ज्ञेयाकार की निरन्तरता होने पर भी ज्ञान की स्वच्छता निहारता है। इस ज्ञान में स्वच्छता शक्ति है और यह ज्ञान कभी भी ज्ञेयो को जाने बिना नही रहता है। अब उन ज्ञेयाकारों से विकल्पो से आकार ग्रहण से परिणत हुए उस ज्ञानस्वरूप में ज्ञान की स्वच्छता जो निहार सके उसे ही तो ज्ञानी कहते है न होती वह शाश्वत स्वच्छता तो यह ज्ञेय विकल्प ही कहाँ से बन पाता? जब इन ज्ञेय विकल्पो को ग्रहण नही किया, केवल ज्ञान को ग्रहण किया तो इसी का अर्थ यह है कि ऐसा सामान्य आकार बना कि वह ज्ञान गुण में समा गया है पृथक नही मालूम होता । I ज्ञानी का ज्ञान की और झुकाव जैसे मानो जब दर्पण के सामने कोई वस्तु न रक्खी हो तो दर्पण अपने आप में अपने आकार को अपने आप में समा लेता है, वहाँ पर भी स्वच्छता खाली नही रह सकती। वह कुछ न कुछ काम करता है। अपने ही आकार को अपनी ही स्वच्छता में झलकाकर बना रहता है, पर स्वच्छता का कार्य न हो तो स्वच्छता का अभाव हो जायगा ऐसे ही अध्यात्मयोगी संत ज्ञानी पुरूष ज्ञानाकार को ज्ञान द्वारा ग्रहण करके एकमेक समाकर विश्रांत और शान्त रहते है, उस समय का जो आनन्द है उसको जो प्राप्त कर लेता है उसे कोई व्यवहार में घर का उत्तरदायी होने के कारण अथवा किन्ही परिस्थितियो में बाह्रा कामो में लगना पड़े तो उसे बड़ा अनुताप होता है, वह खेद मानता है। इस प्रकार यहाँ तक के वर्णन से हमें यह शिक्षा लेना है कि हम केवल घर गृहस्थी विषय धन सम्पदा सुख लौकिक बातें इनके लिए अपना जीवन न माँगें, ये सब नष्ट हो जाने वाली चीजें है दुर्लभ मनुष्य जीवन से जीकर कोई अलौकिक तत्वज्ञान का आनन्द प्राप्त कर लिया जाय तो वह ही परम विवेक है। यहाँ क्या है, धन कम पाया जा ज्यादा पाया, तो उससे क्या हो गया ? आनन्द शान्ति तो ज्ञान के अनुरूप होती है, बाह्रा धन सम्पदा के अनुरूप नही होती है। " सम्बन्ध का धर्म सम्बन्ध में परिवर्तन भैया ! ज्ञानार्जन का मन में आशय रक्खे। इस ज्ञान की साधना के लिए अपना तन, मन, वचन, धन सर्वस्व न्यौछावर करके भी यदि कुछ ज्ञानप्रकाश पा लिया तो जीवन सफल माने और घर के जिन लोगो से सम्बन्ध है उनको यह समझावो इस सम्बन्ध को वैषयिक विषयो में न ढालकर इस मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्वति में बसा लो । मित्रता यह भी कहलायी और मित्रता वहाँ भी कहलायी । इस सम्बंध और मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्वति मं बदल दो। ऐसा सम्बंध बन सका तो यह असम्बधं का उत्साह देने वाला सम्बंध रहा। यह सब हमें किस प्रकार मिले सो पूजन करके रोज पढ़ लेते है। 7 चीजे रोज माँगते हो। शास्त्रो का अभ्यास, चले, सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की भक्ति रहे, सदा सज्जन पुरुषो के साथ संगति रहे, गुणी पुरूषो के गुण कहने में समय जाय, दूसरो के दोष कहने के लिए गूँगा बन जाये, और वचन कुछ भी कभी बोलने पड़े तो सबको प्रिय हो और हितकारी हो। निरन्तर यह ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मतत्व ही 198
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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