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पास आ गए। हमें इसमें कोई अचरज नही होता। इसका प्रमाण यह है कि दोषो ने हम लोगो के पास आ आकर थोड़ी भी मिन्नत की कि थोड़े दिनों को हमको भीस्थान दे दो। तो हम सबने स्थान देने के लिए होड़ मचा दी। आवो सब दोष, तुम्हारा ही तो घर है। खूब आराम से रहो, तुमसे ही तो हम मौज से रहते है। तुम्हारी ही वजह से तो हमारी बनती है। जब सब दोषो को हम लोगो ने स्थान दिया तो एक भी दोष आपके पास आ सके क्या? आप में एक भी दोष नही आ सके, क्योंकि सब दोषो को हम लोगो ने बड़ा स्थान दिया। उससे शिक्षा यह लेनी है कि स्थान तो हमारे दोष और गुणो को बिराजने के योग्य है। अब हम ऐसा विवेक करें कि जिसको स्थान देने में शान्ति संतोष हो सकता हो उन्हे स्थान दे।
दोषवाद से लाभ का अभाव – भैया ! लोगो मे प्रकृति दूसरो की निन्दा करने की हो जाती है, उनके प्रति देखो - दूसरो की निन्दा कर करके वे कुछ मोटे हो गए या चारित्रवान हो गए, या कर्म काट लिए, बल्कि बात उल्अी हुई, दोषमय हो गये वे, क्योकि दोषो में उपयोग लगाये बिना दोषो का कोई बखान कर नही सकता। जब दोषो में उपयोग लगाया तो उपयोग देने वाला सदोष हो गया। जब यह सदोष हो गया तो उससे उन्नति की कहाँ आशा की जा सकती है। कुछ अपनी प्रगति बनाएँ, जिन जीवों के दोष बखानने की रूचि है उनके तो कषायो से बढ़कर भी मोह का पाप समाया हुआ है। किसी का दोष खुद अपनी दृष्टि बुरी बनाए बिना बखान किया नही जा सकता है। यदि अपनी रक्षा रखने के लिए अथवा अपने परमस्नेही किसी बन्धु की रक्षा करने के लिए किसी के दोष बताने पड़े और उसे कठिन अवसर समझा जाय कि बताये बिना काम न चलेगा, नही तो हमारे ये मित्र जो हमारी धर्मसाधना में सहायक है इनको धोखा हो जायगा। वे अपनी व धर्म मित्र की सुरक्षा के लिए दोष बता सकते है, अमुक मे ऐसा दोष है, उसके संग से लाभ न होगा, पर जिसकी प्रकृति ऐसी है कि कोई अवसर नही है, कोई बात नही फंसी है कि कहना ही पड़े और एक को नही अनेक को, जिस चाहे को, जो मिले उसी को दोष बखानने की प्रवृत्ति हो, यह कषायो के अभिप्राय बिना नही हो सकता। इससे उसको लाभ क्या मिला? कुछ नही। जिसमे लाभ मिले वह काम करने योग्य है। कुछ आत्मा का लाभ मिल जाता हो तो दोष ही बखानते रहे, पर लाभ दोष बखानने से नही मिलता, किन्तु अपने को गुणरत करने से मिलता है।
भली प्रतिक्रिया - यदि किसी के प्रति कुछ ईर्ष्या भी हो गई हो तो उसका बदला दोष बखानना नहीं है, किन्तु स्वंय गुणी हो जाय और धर्मात्मा बन जाय तो उससे बढ़कर यह स्वंय हो जायगा, यही भली प्रतिक्रिया है। किसी भी परवस्तु में दोष देखने की आदत अपने भले के लिए नही होती है, गुण देखने की आदत अपने भले के लिए होती है। जगत में सभी जीव है, सबमें दोष है, सबमें गुण है, पर उन दोष और गुणो में से गुणो पर दृष्टि
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