SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंतरंग में मंतव्य रख रहा है। जिसके लिए मै हूँ इस प्रकार का ज्ञान किया जा रहा है जिसको वेदा जा रहा है वह मै आत्मा हूँ। यह आत्मा स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष के द्वारा वेद्य है। आत्मा को देहप्रमाण विस्तार - वर्तमान मे यह आत्मा कर्मोदय से प्राप्त छोटे-बड़े अपने शरीर के प्रमाण है। जैसे प्रकाश को, दीपक को घड़े के भीतर रख दें तो इस घड़े में ही प्रकाश हो जाता है, कमरे में रख दें तो कमरे में फैल जाता है, ऐसे ही यह ज्ञानपुञज आत्मतत्व जिस शरीर में रहता है उतने शरीर प्रमाण हो जाता हें। चींटीका शरीर हो तो चींटी के शरीर के बराबर आत्माहो गया, हाथीके शरीर में पहुंचे तो हाथीके शरीर के बराबर फैल गया। यह आत्मा कर्मोदय से प्राप्त शरीर में बत है तो यह शरीर प्रमाण ही तो रहेगा। शरीर से बाहर मैं आत्मा हूँ - ऐसा अनुभव भी नही हो रहा है, और शरीर में केवल सिर मै हूं, हाथ पैर मैं नही हूं, ऐसा भी अनुभव नही हो रहा है। तन्मात्र है जितना शरीर मिला है उतने प्रमाणमें यह आत्मा विस्तृत है। जब शरीर से मुक्त हो जाता है, सिद्वपद प्राप्त होता है उस समय यह आत्मा जिस शरीर को त्यागकर सिद्ध हुआ है वह शरीर जितने प्रमाणमें विस्तार वाला था उतने प्रमाणमें विस्तृत रह जाता है, फिर वहाँ घटने और बढ़ने का काम नही है। जिस संसार अवस्थामें यह जीव जितने बड़े शरीर को प्राप्त करे उतने प्रमाण यह जीव हो जाता है। छोटा शरीर मिला तो छोटा हो जाता है और बड़ा शरीर मिला तो बड़ा हो जाता है, परन्तु सित अवस्थामें न छोटा होनेका कारण रहा, न बड़ा होने का कोई कारण रहा, शरीरसे मुक्ति हई, कर्म रहे नही, अब बतावो यह आत्मा छोटा बने कि बड़ा हो जाय? न छोटा बनने का कारण रहा, न बड़ा बनने का कारण रहा, तब चरम शरीर प्रमाण यह आत्मा रहता है। आत्मा तनुमात्र है। आत्मतत्वकी - नित्ययता - इस आत्मा का कभी विनाश नही होता हे। द्रव्यदृष्टिसे यह आत्मा नित्य है, शाश्वत है अर्थात् आत्मा नामक वस्तु कभी नष्ट नही होती है, उसका परिणमन नया नया बनेगा। कभी दुःखरूप है, कभी सुखरूप है, कभी कषायरूप है, कभी निष्कषायरूप हो जायगा। आत्मपरिणमन चलता रहता है। किन्तु आत्मा नामक वस्तु वहीका वही है, अविनाशी है। आत्मतत्वका सुखमय स्वरूप - यह आत्मा अनन्त सुख वाला है। आत्माका स्वरूप सुखसे रचा हुआ है, आनन्द ही आनन्द इसके स्वभाव में हे, पर जिसे अपने आनन्दस्वरूपका परिचय नही है वह पुरूष परद्रव्योमें, विषयोमें आशा लगाकर दुःखी होता है और सुख मानता है। यह आत्मा स्वरसतः आनन्दस्वरूप है। कोई-कोई पुरूष तो आनन्दमात्र ही आत्माको मानते है। जैसे कि वे कहते है आनंदो ब्रह्माणो रूपं। ब्राका स्वरूप मात्र आनन्द है, पर जैन सिद्वान्त कहता है कि आत्मा केवल आनन्दस्वरूप ही नही है, किन्तु ज्ञानानन्दस्वरूप है। ज्ञान न हो तो आनन्द कहाँ विराजे? और आनन्दरूप परिणति न हो तो परिपूर्ण विकास वाला ज्ञान कहाँ विराजे? 80
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy