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________________ आत्मतत्वकी सर्वज्ञरूपता - यह आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है। आनन्दस्वरूप है यह तो कहा ही गया है पर ज्ञानस्वरूप भी है। यदि आत्मा ज्ञानरूप न हो तो कुछ व्यवस्था ही न बनेगी। इस समस्त जगतको जाननेवाला कौन है ? इस जगतकी व्यवस्था कौन बनाए ? कल्पना करो कि कोई ज्ञानवान पदार्थ न होता जगत में और ये सब पदार्थ होते तो इनका परिचय कौन करता ? यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है- इसका ज्ञानस्वभाव इसके अनन्त बलको रख रहा है कि ज्ञान से यह लोक और अलोक तीन कालके समस्त पदार्थो को स्पष्ट जान सके। ऐसा यह आत्मा लोक और अलोकका जाननहार है। एकान्त मन्तव्य निरास - आत्माके स्वरूपको बताने वाले इस श्लोकमें 5 विशेषण दिए है। आत्मा स्व-सम्वेदनगम्य है, शरीरप्रमाण है, अविनाशी है, अनन्त सुख वाला है और लाकका साक्षात् करने वाला है इन विशेषणो से 5 मंतव्योंका खण्डन हो जायगा, जो एकान्त मंतव्य है। आत्मसत्वका समर्थन - कोई यह कहते है कि आत्मा तो कुछ प्रमाण का विषय भी नही है जो विषय प्रमाण में आये, युक्तिमें उतरे, उसके गुणोंका भी वर्णन करियेगा। आत्मपदार्थ कुछ पदार्थ ही नही, भ्रम है लोगो ने बहका रक्खा है। धर्मके नामपर जो ऋषि हुए, त्यागी हुए, साधु हुए, एक धर्म का ऐसा ढकोसला बता दिया है कि लोग धर्ममें उलझे रहे और उनकी इस उलझनका लाभ साधु ऋषि संत लूटा करे, उनको मुफ्तमें भक्ति मिल, आदर मिले। आत्मा नामकी कोई चीज नही है कोई लोग ऐसा कहते है। उनके इस मंतव्य का निरास इस विशेषणसे हो गया है कि यह आत्मा स्वसम्वेदनगम्य है, स्पष्ट विदित है एक अंह प्रत्ययके द्वारा भला जो आत्माको मना भी कर रहे है- मैं आत्मा नही हूँ, इस मना करनेमें भी कुछ ज्ञान और कुछ अनुभव है कि नही? है, चाहे आत्माको मना करने के रूपसे ही अनुभव हो। पर कुछ अनुभव हुआ ना, कुछ ज्ञान हुआ। आत्मा नही हूं, मैं कुछ भीन हूं, केवल भ्रम मात्र हूं ऐसी भी समझ किसी में हुई ना। यह समझ जिसमें हुई हो वही आत्मा है जो आत्माको मना करे कि आत्मा कुछ नही है वही आत्मा है। जो आत्मा को माने कि मै आत्मा ऐसा हूं वही आत्मा है। स्वंसवेदन प्रमाणका विषय - यह आत्मा स्वसम्वेदनके द्वारा स्पष्ट प्रसिद्ध है। यह आत्मा अमूर्तिक है इसमें रूप, रस, गधं, स्पर्श नही है इस कारण कोई इस बातपर अड़ जाय कि तुम हमको आँखो दिखा दो कि यह आत्मा है तो मान लूँगा। तो यों आँखो कैसे दिखाया जा सकता है? उसमें कुछ रूप हो, लाल पीला आदि रंग हो तो कुछ आँखो से भी दिखाने का यत्न किया जाय, पर वहां रूप नही है, चखकर भी नही बताया जा सकता है। क्योंकि आत्मामें स्पर्श भी नही हे। यह आत्मा अमूर्तिक है, न यह इन्द्रियोका विषय है और न मनका विषय है। इसीसे लोग यह कह देते है कि आत्मा किसी प्रमाणका विषय भी नही है, परन्तु यह मंतव्य ठीक नही है। 81
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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