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सर्वजीवोमें अहं प्रत्ययवेदन - भैया ! मैं हूं, ऐसा प्रत्येक जीवमें अनुभव चल रहा है, और कोई पुरूष बाहृाविकल्पोंका परिहार करके अन्तर्मुखाकार बनकर अपने आपमें जो जो अनुभव करेगा, जो सत्य स्वभावका प्रकाश होगा उस सत्य प्रकाश्ज्ञके अनुभवको साक्षात् स्पष्ट जानता है कि लो यह मैं हूं। आत्माका परिज्ञान करना सबसे महान् उत्कृष्ट पुरूषार्थ है। इस धन वैभवका क्या है? रहे तो रहे, न रहे तो न रहे। न रहना हो तो आप क्या करेंगे, और रहना हो तो भी आप क्या कर रहे है? आप तो सर्वत्र केवलज्ञान ही कर रहे है, कल्पनाही कर पाते है। कोई कोई पुरूष बाहा विकल्पोका परिहार करके परमविश्राम पाये तो वहाँ अपने आप ही यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मप्रकाश उपयोगमें प्रकट हो जाता है। जब इस आत्माकी सत्ता स्वतः सिद्व समझमें आती है, इस आत्माको असिद्ध कहना ठीक नही
तनुमात्रप्रतिपदनसे सर्व व्यापकत्वका निरसन - दूसरा विशेषण इसमें दिया गया है - आत्मा शरीर मात्र है। इसके विपरीत कुछ लोग तो यह कहते है कि यह आत्मा आकाशकी तरह व्यापक है, आकाशके बराबर फैला हुआ है। जिस प्रकार सर्वत्र आकाश विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा भी सर्वत्र मौजूद रहता है, कही आत्माका अभाव नही है। जैसे आकाश्ज्ञ तो एक है और घड़ेमें जो पोल है उसमें समाये हुए आकाश को लोग कहते हे कि घड़ेका आकाश है यह कमरेका आकाश है। जैसे उन घडोने भीत और घड़ियालोके आवरणके कारण आकाशके भेद कर दिए जाते है कि यह अमुक आत्मा है, यह अमुक आत्मा है ऐसा एक मंतव्य है, परन्तु वह मंतव्य ठीक नही है। जो चीज एक होती है और जितनी बड़ी होती है उस एकमें किसी भी जगह कुछ परिणमन हो तो पूरेमें हुआ करता है। यहाँ तो भिन्न-भिन्न देहियोमें विभिन्न परिणाम देखा जा रहा है।
पदार्थ के एकत्वका प्रतिबोध - यह चौकी रखी है, यह एक चीज नही तभी तो चौकीके एक खुंट मे आग लग जाये तो धीरे-धीरे पूरी जलती हे। एक पदार्थ वह होता है कि एक परिणमन जितने में पूरेमें नियम से उसी समय होना ही पड़े। जैसे एक परमाणु । परमाणुमें जो भी परिणमन होता है वह सम्पूर्णमें होता है। कितना है परमाणु सम्पूर्ण ? एक प्रदेशमात्र, उसे निरंश कहते है। तो एक परिणमन जितने में नियम से हो उतने को एक कहा करते है। यह आत्मा सर्वत्र व्यापक केवल एक ही होता तो हम जो विचार करते है, मानते है उतना जो ज्ञानका परिणमन हुआ, वह परिणमन पूरे आत्मामें होना चाहिए। फिर यह भेद क्यों हो जायगा कि आप जो जानते है सो आप ही जानते है, मै नही जान सकता। जब एक ही आत्मा है तो जो भी परिणमन किसी जगह हो वह परिणमन पूरे आत्मामें होना चाहिए, पर ऐसा होता नही है हममें सुख परिणमन हो तो वह हममें ही होता है आपमें नही जा सकता है। जो आपमें होता है, हम सबमें नही जा सकता है। इससे सिद्ध है कि आत्मा एक सर्वव्यापक नही है। रही आकाशकी बात। दृष्टान्तमंजो कहा गया था तो
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