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से विमुख बन रहा है। बाहापदार्थो में आशा लगाए रहना यह वेदना प्रभव औश्र निदान नामक आर्तध्यान है। यहाँ भी इस जीव ने केवल ध्यान ही किया और ध्यान से ही अपना मौज और विषाद बनाया। यही जीव इस प्रकार का ध्यान न बनाकर वस्तु के यथार्थ स्वतंत्र स्वरूप की और दृष्टि दे देकर यदि सम्यग्ज्ञान पुष्ट करे, सम्यक्त्व पोषण करे तो इसे कौन रोकता है, परन्तु यह मोही प्राणी शुद्ध प्रक्रियाओं को तो त्याग देता है, रागद्वेष मोह मे बसा रहता है।
चैतन्यचिन्तामणि की आस्था का अनुरोध – विवेकी जनो का कर्तव्य है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके आत्मीय आनन्दस्वरूप के लाभ के लिए धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की उपासना करे। भगवान की आज्ञा प्रमाण अपने कर्तव्य में लगे। ये रागाद्रिक विभाव कब दूर हो, कैसे दूर हो, इसका चिन्तन करे और यथाशक्ति उपाय बनावे। इस लोक की विशालता और इस काल के अनादिनिधिनता का विचार करके और भूत काल मे किए गए विचार अन्य जनों पर भी क्या गुजरे, मुझ पर भी क्या गुजरे, इसका यथार्थ चिन्तन करे और कर्मो के फल का भी यथार्थ निर्णय रखे तो इस शुभ ध्यान के प्रताप से अपने को शुद्ध आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। अब एक संकल्प बना ले। आत्मक्षेत्र के भीतरी और चैतन्य चिन्तामणि प्रकाशमान है और इस क्षेत्र में बाहर की और ये विषयकषायरूपी खल के टुकड़े पड़े है। अब किसका आदर करना चाहिए? चैतन्य चिन्तामणि का आदर करना चाहिए। अपने को शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप निरखें, इस ही से शुद्ध आनन्द प्राप्त होगा।
स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ।। 2 ।।
आश्रय से आत्म तत्व - पूर्व प्रकरण से इस बात का समर्थन हुआ है कि चिन्मात्र चिन्तामणि के लाभ में ही आत्मा का उद्वार है और आत्मा का उपकार इसी स्वभाव के अवलम्बन से है। इस बात को जानकर जिज्ञासु यह जानने की इच्छा कर रहा है कि जिस आत्मतत्व के जानने से संसार के समस्त संकट दूर हो जाते है और शाश्वत शुद्ध आत्मीय आनन्द मिलता है, तथा साधारण गुण ज्ञान का पूर्ण विकास हो जाता है, वह आत्मा कैसा है ? इस ही प्रश्न के उत्तर में यह श्लोक आया है। यह आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय है, देहप्रमाण है, अवनिाशी है, अनन्त सखमय है व विश्वज्ञ है।
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आत्मा की स्वसंदेदनगम्यता - यह आत्मा अपने आपको जानने वाले ज्ञान के द्वारा ही जानने में आता है प्रत्येक आत्मा अपने में 'मै हूँ' ऐसा अनुभव करता है। चाहे कोई किसी रूप में माने, पर प्रत्येक जीव में 'मै हूँ, ऐसा विश्वास अवश्य है। मै अमुक जाति का हूँ पंडित हूँ, मूर्ख हूँ, गृहस्थ हूँ, साधु हूँ, किसी न किसी रूप से मै हूँ ऐसा प्रत्येक जीव
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