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विषय विषरस भरा है सो ऐसी हालत हो जाती है जैसे सुवा पाठ रटता रहता है, उड़ मत जाना, नलनी पर मत बैठ जाना, बैठ जाना, तो दाने चुगनेकी कोशिश न करना, दाने चुगना तो उसमें औधं न जाना औधं भी जाना तो नलनीको छोड़कर उड़ जाना। पाठ याद है लेकिन अंतरंग में प्रेरणा जगती है विषयवासनाकी, तृष्णकी। मौका पाकर वह तोता पिंजड़े से उड़ गया, नलनी पर बैठ गया, दाने चुगने लगा, उलट गया और कही मैं गिर न जाऊं इस ख्यालसे वह नलनीको ही पकड़े रहता है। ऐसे ही जिसके अन्तरमें भ्रमवासना बसी है वह पूरा भी करता जाय, पाठ भी पढ़ता जाय, साथ ही विषयमें बुद्वि भी बनी है, ऐसा भ्रमी पुरूष शान्ति संतोष कहाँ से पायगा? विवेक जाग्रत हो तो जैसे वह तोता नलनी को छोड़कर उड़ जायगा।
स्वयंकी उलझन और सुलझन - भैया ! विवेक जागृत हो तो भीतरमें ही तो एक सही ज्ञान बनाना है। कुछ घरके लोगोसे यह नही कहना है कि तुम नरकमें डुबाने वाले हो, ऐसी गालियां नही देना है किन्तु अन्तरंग में ऐ समझभर बना लेना है कि मेरा मात्र मै ही हूं जैसा भी मै अपने को रच डालूँ। इस अज्ञनी प्राणीने अपने ही अज्ञानसे अपने ही अन्यायसे इन संसारके बन्धनोको बढ़ाया है। अब बन्धनोको कौन तोड़ेगा। यह आत्मा स्वयं ही तोड़ेगा। अननत ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति रूप यह स्वंय ही परिणमेगा। अरहंत अवस्था तो इसेक स्वंयके ही स्वसम्वेदनसे प्रकट होगी और समस्त कर्मो से मुक्त होकर शाश्वत सुख और पूर्ण निरञजनताको यही अकेला प्राप्त करेगा।
स्वयंका कर्तव्य – इससे यह शिक्षा लेनी है कि हमारे करने से हमारा कल्याण है दूसरे के प्रयत्न से हमारा कल्याण नही है। घरके आंगनामें कोई आसपासकी भीत गिर जाय और आंगनमें इकट्टी हो जाय तब तो यह बुद्वि चलती है कि यह आंगन हमें ही साफ करना पड़ेगा, कोई दूसरा साफ करने न आ जायगा। ऐसे ही यहा समझो कि भ्रमसे खुदमें दोष भर गए है तो उन दोषो का निराकरण खुदके ही पुरूषार्थसे होगा, दूसरा कोई मेरी गंदगी निकालने न आ जायगा।
ज्ञानवैभव - यथार्थ ज्ञान होना सबसे अलौकिक वैभव है। धन, कन, कंचन, राजसुख सब कुछ सुलभ है किन्तु आत्माके यथार्थ स्वरूपका यथार्थ बोध होना बहुत कठिन है। यह वैभव जिसने पाया है समझिए उन्होने सब कुछ प्राप्त कर लिया, एक इस ज्ञाननिधि के बिना यह जीव वैभव के निकट बसकर भी हीन है, गरीब है, अशान्त है। इसलिए सब प्रकार से प्रयत्न करके एक इस आत्मज्ञज्ञनको उत्पन्न करे, यही शरण है।
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत।।35।।
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