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जो पुरूष अज्ञानी है, तत्वज्ञानकी जिनमें उत्पत्ति नही हो सकती है अथवा कहिए अभव्य है वे किसी भी प्रसंगसे ज्ञानी नही हो पाते है। और जो ज्ञानी है, जिनके तत्वज्ञान हो गया हे वे आज्ञानी नही हो सकते। अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानको प्राप्त नही करते और ज्ञानी जीव मोहको प्राप्त नही होते
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ज्ञान विकास व अज्ञान परिहार जैसे बाहर रस्सी पड़ी हुई है और उसमें किसीको सांप का भ्रम हो गया है तो जब तक सांपका भ्रम बना हुआ हे उस भ्रमोको ज्ञान नही हो पाता है, और जब ज्ञान हो गया, जान लिया कि यह रस्सी ही है तब उसके भ्रम नही हो पाता है, अथवा अज्ञानी से ज्ञानी बननेके लिए स्वंयमें ही तो अज्ञानका परिहार करना होगा और स्वयंमें ही ज्ञानका विकास करना होगा। गुरू विकास नही करते। विकास हो रहा हो तो अन्य गुरू जन निमित्तमात्र होते है । जैसे जीव पुद्गल जब चलनेको उद्यत होते है तो धर्मद्रव्य निमित्त है, पर धर्मद्रव्य चला नही देता । पानीमें मछली है, जब वह चलती है तो उसके चलामें पानी कारण है, पर पानी मछलीको चलाता नही है । चलना चाहे मछली तो निमित्त मौजूद है। ऐसे ही जो पुरूष अज्ञानको छोड़कर ज्ञानी होना चाहता है अथवा ज्ञानी होनेको उद्यत है उसको गुरूजन निमित्त मात्र है ।।
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उपादान सिद्धता भैया ! जो ज्ञानी बनना चाहता है उसको कहाँ रूकावट है । शास्त्र है, गुरू है, साधर्मियोका संग है, सब कुछ प्रसंग हे, कहाँ अटक है कि मुझे साधन नही है, मै कैसे ज्ञान पैदा करूँर ? जिसे ज्ञान नही पैदा करना है उसको निमित्त ही कुछ नही बबन पाते है। वह ही चीज दूसरो के लिए निमित्त बन गई जो ज्ञानी होना चाहते है और जो ज्ञानी नही होना चाहते है उनके लिए कुछ निमित्त नही है। प्रत्येक पदार्थमें परिणमन की शक्ति हे। पदार्थ मे जो शक्ति है उसका परिणमन स्वयंका ही कार्य बनता है। उस कार्य के समय अन्य पदार्थ निमित्त मात्र है। जैसे इस समय जो श्रोता यह रूचि करता हो कि मुझे तो अपने ज्ञानस्वरूपमें अपने उपयोगको लगाना है और अपना ध्यान अच्छा बनाना है तो उसके लिए तो शास्त्र के वचन निमित्त हो जायेगे, पर जिनके ऐसी रूचि नही है, जिनका उपयोग भ्रममें बना हुआ है उनके लिए ये शास्त्र के वचन निमित्त नही है । सब जीवोके स्वयंके उपादान की विशेषता है ।
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उपादान और निमित्त प्रसंग पूर्व श्लोक में कहा गया था कि परमार्थसे आत्मा आत्माही गुरू है, क्योकि प्रत्येक आत्मा स्वंय ही अपनेमें उत्तम हितकी अभिलाषा रखता है, उसका ज्ञान और उस रूप आचरण भी यह स्वयं करता है इस कारण अपना गुरू यह स्वय है। ऐसी बात आनेपर यह शंका होती है तो फिर गुरूजन और उनके उपदेश ये सब बेकार हे क्या? उसके उत्तरमें यह कहा गया कि वास्तवमें तो जितने भी कार्य होते है, चाहे कोई ज्ञानरूप परिणमे चाहे कोई अज्ञानरूप परिणमें तो यह उसके उपादानसे होता है । वहाँ अन्य जन, पदार्थ तो निमित्तमात्र होते है और उसके उदाहरणमें दृष्टान्त देते हे, जैसे जीव
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