SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का अर्थ है कि उनका कभ अन्त न हो सके। तो अनन्तानंत जीव हअनन्तानन्त पुद्गल है, धर्मद्रव्य एक है , अधर्मद्रव्य भी एक है, आकाश भी एक है और कालद्रव्य अंसख्यात है। शांति में वस्तुस्वातंत्रय के परिज्ञान का अनिवार्य सहयोग - ये समस्त द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र है अर्थात् अपने ही स्वरूपको लिए हुए है। समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूपमें ही परिणमते है, कोई किसी अन्यमें त्रिकाल भी नही परिणम सकता। अब समझ लीजिए कि कोई प्रतिकूल चल रहा है तो वह प्रतिकूल नही चल रहा है। यह तो अपनी कषायके अनुसार अपनी कषायकी वेदनाको मिटानेके लिए प्रयत्न कर रहा है। यहाँ यह मोही जीव अपने कल्पित स्वार्थमय अवसरमें विघ्न जानकर खेदखिन्न होता है, मै कितना दुःखी हूं? मेरे अनुकूल ये लोग नही परिणमते बल्कि प्रतिकूल परिणम रहे है। अरे जो जैसा परिणमता है परिणमने दो, तुम तो भेदविज्ञान करो। सुख, साता व शान्ति भेदविज्ञानके बिना कभी न मिलेगी। कुछ दिनोंका संयोग है। घर अच्छा है, समागम अच्छा है, आर्थिक समस्या भी अच्छी है, तो क्या करोगे इन सबका? कब तक पूरा पड़ेगा इन बाहा पदार्थो से? भेदविज्ञान करो। मै आत्मा जगतके समस्त पदार्थो से न्यारा हूं, ऐसा उपयोग बनाकर अपनेको न्यारा समझ लो तो शान्ति मिलेगी अन्यथा परकी और आकर्षण हाने से कभी शान्ति न मिल सकेगी। सांसरिक सुखो के अनुपात से दुःखो के उद्गम की अधिकता - भैया ! ये संसार के सुख जितने ज्यादा मिलेगें उतना ही ज्यादा दुःखके करण है, खूब सोच लो। किसी को स्त्रीका समागम है, वह स्त्री आज्ञाकारिणी हो, रूपवान हो और भी अनेक कलाएँ हो, उसके मन को रमाने वाली हो तो जब उसका वियोग होगा तो कितना क्लेश होगा? जितना राग किया है उसके अनुपात से हिसाब लगा लो, ज्यादा क्लेश होगा, और किसीको अपनी स्त्रीसे अनुराग नही है अथवा किसी कारणसे स्त्री कलाहीन है, लड़ने वाली है, आज्ञा नही मानती है तो उससे तो पहिले से ही दिल हटा हुआ है उसका वियोग होनेपर उसको क्लेश उसके रागके अनुपात से होगा। जो पुरूष बाहा पदार्थोको जितना अधिक प्यारा मानता हो वह उतना ही अधिक दुःख पायगा। जो विवेकी पुरूष है, जिन्हे सम्यग्ज्ञानका उदय हुआ है वे पाये हुए समागममें हर्ष मानते है, उसके ज्ञाताद्रष्टा रहतें है। ज्ञानीकी दृष्टिमें सम्पदा व विपदाकी समानता - ज्ञानी पुरूष जानता है कि यह भी कर्मोका एक उदय है। नाम दो है- सम्पदा और विपदा, पर कष्टके कारण दोनो ही है। जैसे नाम दो हो नागनाथ और सांपनाथ मगर विषके करने वाले दोनो ही है। सांपनाथको नागनाथ कह देनेसे कही वह सांप निर्विष न हो जायगा, उसके संकट तो झेलना ही पड़ेगा, ऐसे ही ये लोककी सम्पदा और विपदा है, इनमें मोही जीव सम्पदाको भला मानता है, यह बहुत भला है, इससे बड़ा सुख है, पर ज्ञानी जानता है कि सम्पदा और विपदा दोनो ही दुःख के कारण है। पुण्य और पाप दोनो ही ज्ञानी के लिए मात्र ज्ञेय रहते है, वह 104
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy