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________________ पुण्य के फल में हर्ष नही मानता है और पाप के फल में विषाद नही करता है। समताबुद्धि रखता है। ज्ञानी की धुन तो अलौकिक अध्यात्मरस के पान की और लगी हुई है। जिसने अद्वैत निज आत्मतत्व का अनुभव किया है उसे संकट कैसे सता सकेगे? सर्व स्थितियो में परमार्थतः पदार्थ की स्वतंत्रता - ये समस्त पदार्थ स्वतंत्र है, अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नही है। अशुद्ध अवस्था में पर का निमित्त पाकर अशुद्ध परिणत हो जाते है तिसपर भी यह जीव अशुद्ध होता है अपनी ही शक्ति के परिणमन से, दूसरे पदार्थ ने उसे अशुद्ध नही कर दिया। प्रत्येक पदार्थ अद्वैत है, अपने ही परिणमनरूप परिणमता है। हम दुःखी होते है तो अपने आप में कल्पनाएँ रचाते है और उन कल्पनाओ से दुःखी हुआ करते है और हम सुखी होते है तो अपनी कल्पनाएँ बनाकर ही सुखी होते है। कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ को सुखी दुःखी करने में समर्थ नही है। जो घर मोह अरवस्था में प्रिय लगता था वही घर आज वैराग्य जगने पर प्रिय नही लगता है। ये सारी सृष्टियाँ, सुख, दुःख, संकल्प, विकल्प भोग, उपभोग आदि समस्त सृष्टिया इस आत्मा से ही उठकर चला करती है। आत्मा के एकत्व चिन्तन में शान्ति समृद्धि का अभ्युदय - इस आत्मा के ध्यान मे आत्मा अद्वैतरूप रहती है, अब किसका ध्यान करे, जब यह जीव संसार अवस्था में है, कर्म आदिक का संयोग चल रहा है तब भी यह जीव वस्तुवः अपना परिणमन कर रहा है। इस अशुद्ध निश्चय की दृष्टि से भी अपने आपके एकत्व को सम्हाले तो इस अशुद्ध निश्चयनय से आगे चल कर केवल निश्चयनय में आ सकते है। अपने आपको जितना भी अकेला चिन्तन किया जाये सबसे न्यारा केवल ज्ञानानन्दस्वरूप मात्र हूँ- इस प्रकार का अपना अकेलपापन चिन्तन किया जाए, तो उस जीव में शान्ति का उदय होगा। किसी दूसरे पर दृष्टि रखकर शान्ति कभी आ ही नही सकती है। मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का आद्य स्थान - मोक्ष मार्ग में सम्यक्त्व का प्रथम स्थान है। जो जैसा पदार्थ है उस पदार्थ को वैसा समझ लेना यही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के बिना इस जीव ने इतने मुनिपद धारण किए होंगे कि एक-एक मुनि अवस्था का एक-एक कमंडल जोड़ा जाय तो अनेक मेरू पर्वत बराबर ढेर लग जायगा। भेष रखने में अथवा अपनी कपोल कल्पित मान्यता के द्वारा क्रियाये करने में कौन सा बड़प्पन है? केवल एक संयोग में रूप बदल गया है। अज्ञानदशा में गृहस्थ रहता हुआ गृहस्थ के योग्य विकल्प मचाने का काम करता था, अब अज्ञान दशा में मुनि का रूप रखकर अब मुनि की चर्या जैसा विकल्प का काम करता है, पर अज्ञानदशा तो बदल नही सकती देह के कुछ भी कार्य बनाने से। यह अज्ञानदशा भी ज्ञान का उदय होने से ही दूर की जा सकती है। ज्ञान बिना सम्यक्त्व नही, ज्ञान बिना ध्यान, तप, व्रत, संयम नही, ज्ञान बिना आत्मा के उद्वार का कभी उपाय नही बन सकता। इस कारण अपने आप पर यदि दया आती है, तरस आती है, 105
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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