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परतत्व की प्रीति के परिहार का विवेक - इस ज्ञानानन्दमय आत्मनिधि को परखें और इन्द्रियो की प्रीति तजें, आत्महित की साधना है। इससे देह का अपकार होता है, इस पर ध्यान न दे, किन्तु जिन बातो से इस जीव का अपकार होता ह उनको मिटाएँ, यो हम विवेकी कहे जा सकते है। पुराण मोक्षार्थी पुरूषो ने भी इस धन वैभव का व अन्त में देह का भी परित्याग करके शान्त और निराकुल अवस्था को प्राप्त किया है, उन्होने निर्वाण का आनंद पाया है उन पुरूषो के उपदेश में यह बात कही गयी है कि इन्द्रिय भोग चाहे देह के उपकारक है, परन्तु आत्मा का तो अपकार ही करने वाले है। इसलिए आत्मातिरिक्त अन्य पदार्थो का मोह त्यागना ही श्रेयस्कर है।
इतश्चिन्तामणिर्दिव्यः इतः पिण्याकखण्डकम् ।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ।। 20 ।।
आनन्दनिधि व संकट विधि का ध्यान से उपलम्भ - जैसे किसी पुरूष के समने एक तरफ तो चिन्तामणि रत्न रखा हो और एक तरफ खल का टुकड़ा रखा हो और उससे कहा जाय कि भाई जो तू चाहता हो उसे मांग ले अथवा उठा ले। इतने पर भी वह पुरूष यदि खली का टुकड़ा ही उठाता है, माँगता है तो उसे आप पागल भी कह सकते है, मूर्ख भी कह सकते है। कुछ भी कह लो। इसी प्रकार हम आप सबके समक्ष एक और तो अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन का निधान यह आत्मनिधि पड़ी हुई है और एक औश्र अर्थात् बाहर में यह धन वैभव पड़ा हुआ है, और बात यह है कि मनुष्य ध्यान के द्वारा जो चाहे सो पा सकता है। शुद्व ज्ञान करे और अपने आपके ध्यान की और आए तो आत्मीय आनन्द पा सकता है, बाहर की और झुके तो उसे वहाँ विषय सम्बधी सुख दुःख प्राप्त हो सकते है। दोनो ही यह ध्यान से पाता है। ध्यान से ही आत्मीय आनन्द पा लेगा और ध्यान से ही वैषयिक सुख और क्लेश पा लेगा।
सुगम लाभ के प्रति अविवेक की पराकाष्ठा - अब वह सत्य आनन्द न चाहे तो उसे क्या कहोगे? मन में कहलो, वस्तुतः न किसी बाहा पदार्थ से क्लेश मिलता है और न सुख मिलता है। जैसी कल्पना बनायी उस कल्पना के अनुसार इसमें सुख अथवा दुःख रूप परिणमन होता है। सब ध्यान से ही मिल जाता है। तो एक ओर तो है आत्मीय अनन्त ज्ञान दर्शन की निधि जो आनन्द से भरपूर है और एक और विषयो के सुख ओर क्लेश। दोनो को ही यह जीव ध्यान से प्राप्त कर सकता है। किसी से कहा जाय कि भाई तुम कर लो ध्यान, ध्यान से ही तुम पा लोगे जिसकी अन्तर में रूचि करोगे। न इसमें कुछ रकम लगाना है, न वैभव जोड़ना है, न शरीर का श्रम करना है, न व्याख्यान सीखना है। केवल ध्यान से ही प्राप्त किया जा सकता है। चाहे आत्मीय आनन्द पा लो और चाहे सांसारिक सुख-दुःख विपदा पा लो। इतने पर भी यह जीव उन वैषयिक सुखो का ही ध्यान बनाये
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