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________________ तो जितनी बातें लौकिक पागल को कह सकते हो उतनी ही बातें इसको भी कह सकते हो। यह मोह में पागल हो गया है, अपना ध्यान को ऐसा बौराया है बाहर में कि इस अनन्त निनिध का घात कर डाला है। विवेकी जन तो उस चिन्तामणि रत्न का आदर करेगे, सम्यग्ज्ञानी पुरूष उस आत्मास्वरूप का आदर करेंगे। जैसे किी बुद्विमान से कहा जाय कि खल का टुकड़ा और यह चिन्तामणि अथवा अन्य जवाहरात रखे है, इनमें से तुम जो चाहे उठा लो तो वह रत्नो को उठायेगा। इसी प्रकार जो जीव धर्म ध्यान, शुक्लध्यान रूप उत्तम ध्यानों का आराधन करते है वे वास्तविक स्वरूप की, सत्य आनन्द की प्राप्ति कर लेते ह। अज्ञान का महासंकट - भैया ! इस पर सबसे बड़ा संकट अज्ञान का बसा हुआ है। अज्ञान अंधकार में पड़ा हुआ यह जीव कुछ समझ ही नही पा रहा है कि मेरा क्या कर्तव्य है, कहाँ आनन्द मिलेगा, कैसे सर्व चिन्ताएँ दूर होगी? इसका उसे कुछ भी भान नही है। यहाँ के मिले हुए समागम के थोड़े दिनों को इतरा लें, मौज मान ले, कुछ अज्ञानी पूढो के सिरताज बन ले, इन सबसे कुछ बढ़िया पोजीशन वाले कहलाने लगे, तो भला बतलावो कि चंद दिनो की इस चांदनी से क्या पूरा पड़ेगा? जो जीव आर्तध्यान, रौद्रध्यान इन अप्रशस्त ध्यानो का आस्रव करता है उसे खल के टुकड़े के समान इस लोक सम्बन्धी कुछ इन्द्रिय जन्म सुख प्राप्त हो जाता है, पर उन सुखो में दुःख ही भरा हुआ है। तेज लाल मिर्च खाने में बतावो कौनसा सुख हो जाता है, पर कल्पना में यह जीव कहता है कि इसमें बड़ा स्वाद आया, यह तो बड़ी चटपटी मंगौड़ी बनी है। कौन सा स्वाद आया सो बतावो, पर लाल मिर्च के खाने के खाने में कल्पना में स्वाद माना जा रहा है। आंसू गिरते जाते और सुख मानते जाते। जैसी यहाँ हालत है वैसी ही हालत इन इन्द्रियविषयों के भोगो में और धनसंचय से मन की मौज में भी यही हालत है। विपदा अनेक आती रहती है और मौज भी उसी में मान रहे है। सदगृहस्थ की चर्या- भैया ! सदगृहस्थ वह है जो अपने रात दिन में कुछ समय तो निर्विकल्प बनने का प्रयत्न करे और आत्मा की सुध ले। यह बैठा हुआ, पड़ा हुआ कभी किसी दिन यों ही सीधे चला जायगा, इस शरीर को छोड़कर अवश्य ही जाना होगा। अभी कुछ अवसर है ज्ञानार्जन करने का। घर्म साधन करके पुण्य कमाये, मोक्षमार्ग बनाए, सच्ची श्रद्वा पैदा करे, संसार से छूटने को उपाय बना ले, जो करना चाहे कर सकते है और विवेकी पुरूष ऐसा करते ही है। अविवेकी पुरूष अवसर से लाभ नही उटाते और व्यर्थ के चक्कर में उपयोग रमाकर जीवन गंवा जाते है।
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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