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________________ ज्ञानी विवेक पर एक दृष्टान्त - जैसे जिस राज्य में यह नियम हो कि यहाँ प्रतिवर्ष राजा का चुनाव होगा और उस राजा के वर्ष की समाप्ति होने पर उसे जंगल में छोड़ दिया जायगा। कौन पेन्शन दे, कौन उसकी सेवा करे? यह नियम हो तो बेवकूफ लोग तो राजा बनेंगे और जंगल में मरेंगे, किन्तु कोई बुद्विमान तो यह ही करेगा कि हम एक वर्ष को तो हे राजा, जिस वर्ष हम राजा है उस वर्ष तो हम जो चाहे सो कर सकते है। वह जंगल में ही अपनी कोठी बना दे, खेती बैल सब कुछ तैयार कर दे, नौकर भी भेज दे, एक पार्क बना ले, कर ले जो करना हो, फिश्र वह फैकं दिया जाय जंगल में तो वहाँ तो वह मौज से रहेगा। ज्ञानी का विवेक - ऐसा ही इस बार संसार राज्य का ऐसा नियम है। इसे 50, 60, 70 वर्ष को मनुष्य बना दो, सब पशुओ का इसे राजा बना दो, सब जीवो में इसे सिरताज बना दो, फिर 60-70 वर्ष के बाद इसे फैक देना निगोद में, स्थावर में, कीडे मकोड़ो में, नरको में ऐसा इस सामान्य का नियम है। तो यहां अविवेकी मूढ़ आत्मा तो इस मनुष्य के साम्राज्य में, विषयो में मग्न होकर चैन माना करते है, पर मरने पर दुर्गति पायेगे, किन्तु कोई हो बुद्विमान जीव तो वह तो यही समझेगा कि इस 60-70 वर्ष मे जो कुछ करना चाहें कर तो सकते है ना, हमारा ज्ञान हमारे पास है, हमारा आत्मस्वरूप हममें ही है, हम जैसा बोध करना चाहे, ज्ञान करना चाहे, उपयोग लगाना चाहें लगा सकते है। यहाँ यदि संसार को छोड़ने का उपाय बना लें, सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ले तो अब तो इसे सुगति ही मिलेगी और अति निकट काल में निर्वाण पद पायगा। बुद्धिमान तो यो करते है। आत्मनिर्णय - भैया! अब हम अपनी-अपनी सोच लें। हम अपनी सूची मूढ़ो में लिखायें कि बद्विमान में? प्रोग्राम तो बनाते ही है बहुत से । कुछ इस प्रोग्राम का भी निर्णय कर ले, इन मूर्यो में अपना नाम लिखावे या विवेकियो में? इस अनित्य समागम का लोभ करने वाले तो मुढो में ही अपना नाम लिखाने वाले है और इन समस्त पौदगलिक विभूतियों से पृथक अपने आत्मकल्याण को ही प्रधान समझने वाले पुरूष विवेकियो में नाम लिखने वाले है। देखो इस आत्मक्षेत्र के निकट अर्थात् अन्तर की और यह चैतन्य चिन्तामणि रत्न पड़ा हुआ है। ओर बाहर मे ये वैषयिक सुखःदुख निःसार असार खल के टुकड़े पड़े हुए है। अब देखो, ध्यान से ही आत्मीय आनन्द पाया जा सकता है और ध्यान से ही बाहा सुख पाये जो सकते है। विवेक कर लीजिए कि हमें कैसा ध्यान बनाना चाहिए? कुछ मोही अज्ञानी जीवों से, मोहियों से, पर्याय बुद्वि वालो से प्रशंसा के शब्द सुन लिया तो क्या पाया? उन्होने भी प्रेम से नही बोला, किन्तु स्वयं अपनी कषाय की वेदना को शान्त करने के लिए बोला है। हम आत्मकल्याण की दृष्टि छोड़कर यदि इन खली के टुकड़ो में ही लग जाये तो यह कुछ भी विवेक नही है। 11
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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