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दुर्लभ नरजन्म में विवेक - अहो, यह जीव मथानी की तरह मथा जा रहा है। कषाय किसे कहते है जो आत्मा को कसे। दुःखो में यह जीव मथ जाता है। नाम तो सरल है इसे बड़ा क्लेश है पर जिसे क्लेश है वही जानता है। अपनी दृष्टि शुद्ध कर लो तो क्लेश कुछ भी नही है। क्या क्लेश है? सड़को पर देखते है भैसो के कंधे सूजे है, उन पर बहुत बड़ा बोझ लदा है फिर भी दमादम चाबुक चलते जा रहे है। बेचारे कितना कष्ट करके जुत रहे है और जब जुतने लायक न रहा तो कसाई के हाथ बेच दिया। कसाई ने छुरे से काटकर मांस बेच लिया और खाल बेच लिया। क्या ऐसे पशुओ से भी ज्यादा कष्ट है हम आपको? संसार में दुःखी जीवो की और दृष्टि पसार कर देखो तो जरा। अनेक जीवों की अपेक्षा हम और आप सब मनुष्यों का सुखी जीवन है, पर तृष्णा लगी है तो वर्तमान सुख भी नही भोगा जा सकता। उस तृष्णा में बहे जा रहे है सो वर्तमान सुख भी छूटा जा रहा है। ऐसी विशुद्ध स्थिति पाने से लाभ क्या लिया? यदि विषय कषायो में धन के संचय में परिग्रह की बुद्धि में इनमें ही समय गुजरा तो मनुष्य जन्म पाने का कुछ लाभ न पाया।
___ऐहिक कल्पित पोजीशन से आत्मकार्य का अभाव – यहाँ के कुछ लोगो ने बढावा कह दिया तो न ये बढ़ावा कहने वाले लोह ही रहेगें और न यह बढ़ावा कहलाने वाला पुरूष ही रहेगा। ये तो सब मायारूप है, परमार्थ तत्व नही है। किसलिए अपने बढ़ावा में बहकर अपनी बरबादी करना। जगत में अन्य मूढो की परिस्थितियों को निहार कर अपना निर्णय नही करना है। यहाँ की वोटो से काम नही चलने का है, जगत के सभी जीव किस
और बहे जा रहे है कुछ दृष्टि तो दो। अपना काम तो अपने आत्मा का कल्याण करना है। यह दुनिया मोहियो से भरी हुई है। इन मोहियो की सलाह से चलने से काम न बनेगा।
यथार्थ निर्णय के प्रयोग की आवश्यकता - भैया ! किसके लिए ये रागद्वेष किए जा रहे है कुछ यथार्थ निर्णय तो करिये। किसी एक को मान लिया कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरा अमुक है, यह सुखी रहे, ठीक है। प्रथम तो यह बात है कि किसी को सुखी करना यह किसी के हाथ की बात नही है। उसका उदय होगा तो वह सुखी हो सकेगा, उदय भला नही है तो सुखी नही हो सकता है। प्रथम तो यह बात है फिर भी दूसरी बात यह है कि संसार के सभी जीव मुझसे अत्यन्त भिन्न है। हमारे आत्मा में हमारे घर का भी पुत्र क्या परिवर्तन कर देगा? किसके लिए कल्पना में डूब रहे है? यह बहुत समृद्विशाली हो जाय और उस एक को छोड़कर बाकी जो अनन्त जीव है वे तुम्हारी निगाह में कुछ है क्या? वही एक तुम्हारा प्रभु बन गया जिसको रात दिन कल्पना में बैठाये लिए जा रहे हो। कौन पुरूष अथवा कौन जीव ऐसा है जिससे राग अथवा द्वेष करना चाहिए? अरे शुद्ध तत्व के ज्ञाता बनो और जिस पदवी में है उस पदवी में जो करना पड़ रहा है करें किन्तु यथार्य ज्ञान तो अन्तर में रहना ही चाहिए।
कल्याण साधिका दृष्टि - मैं सर्व परपदार्थे से जुदा हूँ, अपने आप में अपने स्वरूप मात्र हूँ। मेरा सब कुछ मेरे करने से ही होगा, मैं किसी भी प्रकार की हो भावना ही बनाता हूं, भावना से ही संसार है और भावना से ही मुक्ति है, भावना के सिवाय मै अन्य कुछ करने में समर्थ नही हूँ ऐसी अपनी भावात्मक दृष्टि हो, रागद्वेष का परित्याग हो,
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