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कोई दूसरा बाधक हो गया तो उसको द्वेषी मान लिया। जिसका जो लक्ष्य है उस लक्ष्य में जा बाधक पड़े वही उसका द्वेषी बन जाता है। साधुंसत कही बिहार करते जा रहे हो तो शिकारी उन साधुवो को देखकर साधुवो पर द्वेष करता है, आज तो बड़ा असगुन हुआ, शिकार नही मिलने का है। तो जिसका जो लक्ष्य है उस लक्ष्य में बाधक पड़े उसी से लोग द्वेष करने लगते है। जहां ये राग और द्वेष दोनो होते है वहां यह मन अत्यन्त बेकार हो जाता है। जो मनुष्य यह दावा करता है कि हमारा तो सबसे प्रेम है, किसी से द्वेष नही है, यह उनकी भ्रम भरी कल्पना है। प्रेम और द्वेष ये दोनो साथ साथ चलते है। किसी में राग नही रहा तो द्वेष हो गया। यह मेरा है और यह दूसरे का है ऐसा जहाँ रागद्वेष दोनों रहते है वहाँ अन्य दोष तो अनायास आ ही जाते है क्योंकि सारे ऐंबो का कारण राग और द्वेष
है।
भ्रमण चक्र - यह रागद्वेष की परम्परा इस जीव को संसार मे भ्रमण करा रही है। जो जीव संसार में घूमता रहता है उसके रागद्वेष की उन्नति होती रहती है और उसके द्वारा शुभ अशुभ कर्मो का आस्रव हातो रहता है। अशुभ कर्म जो करेगा उसे दुर्गति मिलेगी, जो शुभ कर्म करेगा उसे सुगति मिलेगी। देखते जाइए चक्कर। रागद्वेष परिणामो से कर्म बँधे, कर्मो से गति अथवा सुगति मिली, और कोई भी गति मिलेगी उसमें देह मिला, देह से इन्द्रियाँ हुई, और इन्द्रियाँ से विषयो का ग्रहण किया और विषयो के ग्रहण से राग और द्वेष हुआ। उसी जगह आ जाइये। अब रागद्वेष से कर्म बँधा, कर्म से गति सुगति हुई, वहाँ देह मिला, देह से इन्द्रियाँ हुई, इन्द्रियाँ से विषय किया, विषयो से रागद्वेष हुआ यो यह चक्र इस जीव के चलता ही रहता है। जैसे अपने ही जीवन में देख लो- जो कल किया सो आज किया, आज किया सो कल करेगे, इससे विलक्षण अपूर्व काम कुछ नही कर पाता यह जीव।
अपूर्व कार्य - भैया! इन चिरपरिचित विषयो से विलक्षण आत्मकार्य कर ले कोई तो वह धन्य है। अपनी 24 घंटे की चर्चा देख लो। पंचन्द्रिय के विषयो का सेवन किया और मन के यश अपयश, इज्जत प्रतिष्ठा सम्बंधी कल्पनाएँ बनायी, जो काम कल किया से आज किया, रात भर सोये, सुबह उठे, दिन चढ़ गया, भोजन किया, कुछ इतर फुलेल लगाया दूकान गए, काम किया, भोजन किया, फिर वही का वही काम। जो चक्र इन्द्रिय और मन सम्बंधी लगा आया है वही लगता जा रहा है, कोई नया काम नही किया। यह जीव रागवश इन्ही में अपना काम समझता है, पर नया कुछ नही किया। नया तो एक आत्म-कल्याण का काम है, अन्य काम तो और भवो में भी किया। मनुष्य भव में विषय सेवन से अतिरिक्त कौन सा नया काम किया? वही विषयो का सेवन, वही विषयो की बात । यो खावों, यो रहो ऐसा भोगो, ऐसा धन कमावो, सारी वही बाते है कुछ भी तो नया काम नही हुआ। और सम्भव है कि पहिले आकुलता कम थी अब ज्यादा वैभव हो गया तो ज्यादा आकुलता हो गयी। जब कम वैभव होता तो बड़ा समय मिलता है, संत्सग में भी, पाठ पूजन भक्ति ध्यान भी करने में मन लगता है। और जब वैभव बढ़ता है तो संत्सग भी प्रायः गायब हो जाता है, पूजा भक्ति में भी कम समय लगता है और रातदिन परेशानी रहती है।