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________________ है। मिलता कुछ नही वहाँ, बल्कि श्रद्वा, चरित्र, शक्ति, ज्ञान सभी की बरबादी है, लेकिन राग बिना इस जीव को चैन ही नही पड़ती है। ऐसी ही द्वेष की बात है। जगतके सभी जीव एक समान है और सभी जीव केवल अपना ही अपना परिणमन कर पाते है तब फिर शत्रुता के लायक तो कोई जीव ही नही है। किससे दुश्मनी करनी है? सबका ही अपना जैसा स्वरूप है। कौन शत्रु, लेकिन अज्ञान में अपने कल्पित विषयो में बाधा जिनके निमित्त से हुई है उन्हें यह शत्रु मान लेता है। सो राग और द्वेष इन दोनो से यह जीव खिचां चला जा रहा है। रागद्वेष के चढ़ाव उतार - जैसे बहुत बड़ी झूलने की पलकियां होती है, मेले में उन पर बैठकर लोग झूलते है। बम्बई जैसे शहरो में बिजली से चले वाली बहुत बड़ी पलकियाँ होती है। बालक लोग शौक से उस पर बैठते है। पर जैसे पलकियाँ चढ़ती है तो भय लगता है और जब ऊपर चढ़कर गिरती है तब और भी अधिक भय लगता है। भय भी सहते जाते है और उस पर शौक से बैठते भी जाते है। ऐसे ही ये राग और द्वेष के चढ़ाव उतार इस जीव के साथ लगे है जिसमें अनेको संकट आते रहते है, उन्हे सहते जाते है, दुःखी होते जाते है, किन्तु उन्हें त्याग नही सकते है। भरत और बाहुबलि जैसी बात तो एक विचित्र ही घटना है, न यहाँ भरत रहे और न बाहुबलि रहे परन्तु जिस जमाने में उनका युद्व चला उस जमाने में तो वे भी संकट काटते रहे होगें। कौरव और पाण्डव का महाभारत देखो। महाभारत का युद्ध हुआ था उस समय तो दुनिया में मानो प्रलय सा छा गया होगा, ऐसा संकट था। न कौरव रहे न पाडंव। पुराण पुरूषो ने भी बड़े बड़े वैभव भोगे, युद्व किया, अंत में कोई विरक्त होकर अलग हुए, कोई संक्लेश में मरकर अलग हुए। जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होता है, परन्तु ये मोही जीव अज्ञान में इन बाहृा वस्तुओ को अपना सर्वस्व मानते है, जीव राग और द्वेष में व्यग्र रहते है वे अनन्तकाल तक जन्म मरण के कष्ट उठाते रहते है। राग और द्वेष का परस्पर सहयोग - राग और द्वेष ये दोनो परस्पर सहयोगी है। जैसे मंथानी में जो डोर लगी रहती है उनके दोनो छोरं परस्पर सहयोगी है, एक छोर अपना काम न करे तो दूसरा छोर अपना काम नही कर सकता है। एक और खिचंता है तब एक दूसरा छोर मंथानी की और खिंच जाता है। जैसे मंथानी की रस्सी में दोनो छोरो का परस्पर सहयोग है ऐसे ही राग और द्वेष का मानो परस्पर सहयोग है। किसी वस्तु का राग है तो उस वस्तु के बाधक के प्रति द्वेष है। किसी बाधक के प्रति द्वेष है तो उसके बाधक के प्रति राग है । ये राग और द्वेष भी परस्पर में एक दूसरे के किसी भी प्रकार का सहयोग दे रहे है। द्वेष के बिना राग नही रहता है और राग के बिना द्वेष भी नही रहता है। किसी वस्तु में राग होगा तभी अन्य किसी से द्वेष होगा। और अध्यात्म में यही देख लो जिसका ज्ञान और वैराग्य से द्वेष है। यों यह तो अध्यात्म की बात है। इस प्रकरणमें तो लौकिक चर्चा है। सर्व दोषो का मूल - यह जीव राग द्वेष के वश होकर इस संसार समुद्र में गोते खा रहा है। जहाँ राग हो वहाँ द्वेष नियम से होता है। जिसे धन वैभव में राग है उसमें 36
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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