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धोने के लिए तो यह ही शिला ठीक है। आखिर दोनो में बात बढी। साधु ने धोबी के दो तमाचे मार दिये। धोबी को भी गुस्सा आया तो उसने भी मार दिया। अब वे दोनो बहुत जूझ गये तो धोबी के दो तमाचे मार दिये। धोबी को भी गुस्सा आया तो उसने भी मार दिया। अब वे दोनो बहुत जूझ गये तो धोबी पहिने था तहमद, सो वह छूट गया, अब दोनो नग्न हो गए ।अब तो दोना एक से ही लग रहे थे। बहुत विवाद के बाद वह साधु ऊपर को निगाह करके कहने लगा कि अरे देवताओ, तुम्हे कुछ खबर नही है कि साधु के ऊपर संकट आ रहा है? तो आकाश से आवाज आयी की महाराज देवता तो सब र्धमात्मावो की रक्षा करने को उत्सुक है, पर हम सब लोग इस संदेह में पड़ गए है कि इन दोनो में साधु कौन है और धोबी कौन है? एक सी दोनो के कषाय है, एकसी लडाई है, एक एसी गाली-गलौज है तो उसमें कैसे निपटारा हो कि अमुक साधु है और अमुक धोबी है।
सन्मार्ग का सहारा - भैया ! बुरा करने वाले का बुरा करने लग जाना यह कोई अच्छा प्रतिकार नही है। सज्जनता तो इसमें है कि कुछ परवाह न करो कि कोई मेरा क्या सोचता है, तुम सबका भला ही सोच लो। एक यही काम करके देख लो। किसी का बुरा करने में तो खुद को भी संक्लेश करना पडेगा। तब बुरा सोच सकते है। जैसे किसी को गाली देना है तो अपने आपमें यह भाव लाना पडेगा कि गाली दे सके। और किसी को सम्मान भरी बात कहना है तो उसमें शान्ति से बात कर सकते हो। इससे यह निर्णय रक्खो कि हमारा कर्तव्य यह है कि हम सब जीवो के प्रति उनके सुखी होने की भावना कर, इसमें ही हमें सन्मार्ग प्राप्त हो सकेगा।
रागद्वेषद्वयीदीर्घनेताकर्षणा कर्मणा
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ।।11।। रागद्वेषवश मन्थन - यह जीव रागद्वेषरूपी दोनो लम्बी नेतनियो के आकर्षण के द्वारा संसार समुद्र में अज्ञान से घूम रहा है। दही मथने वाली जो मथानी होती है उसमें जो डोरी लिपटी रहती है तो उस डोरी को नेतनी कहते हैं। उस नेतनी के आकर्षण की क्रिया से, जैसे मथानी मटकी में बहुत घूमती रहती है इसी प्रकार रागद्वेष ये दो तो डोरिया लगी हुई है, इन दो डोरियो के बीच में जीव पड़ा है। यह जीव मथानी की तरह इस संसार सागर में भ्रमण कर रहा है। देहादिक परपदार्थो में अज्ञान के कारण इस जीव को राग और द्वेष होता है, इष्ट पदार्था में तो प्रेम और अनिष्ट पदार्थो में द्वेष, सो इन रागद्वेषो के कारण चिरकाल तक संसार में घूमता है। जिस राग से दुःख है उस ही राग से यह जीव लिपटा चला जा रहा है।
रागद्वेष का क्लेश - भैया! परवस्तु के राग से ही क्लेश है। आखिर ये समस्त परवस्तु यहाँ के यहाँ ही रह जाते है। परका कोई भी अंश इस जीव के साथ नही लगेगा, लेकिन जिस राग से जीवन भर दुःखी हो रहा है और परभव मे भी दुःखी होगा उसी राग को यह जीव अपनाए चला जा रहा है, उसका आकर्षण बना है, कैसा मेरा सुन्दर परिवार, कैसी भली स्त्री, कैसे भले पुत्र, कैसे भले मित्र सबकी और आकर्षण अज्ञान में हुआ करता