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________________ सकता, सो जिस समय दूसरे को दू:खी होना सोचेगा वह दूसरो के प्रति सोचकर अपने व्यग्रता बढ़ा रहा है। ____ अपकार में प्रत्ययकार की प्राकृतिकता - लोक मे जो पुरूष दूसरे को सुख पहुँचाता है दूसरे भी उसे सुख पहुँचाते है। अभी यहाँ ही देख लो- किसी से विनय के वचन बोलो तो दूसरे से भी इज्जत मिलेगी और खुद टेढे कठोर वचन बोलेगे, तो दूसरो से भी वैसे ही वचन सुनने को मिलते है, वैसा ही व्यवहार देखने को मिलता है। तो जब यह सुनिश्चित है कि हम जैसा दूसरे के प्रति सोचेगे, वैसा ही मुझे होगा, तब अपकार करने वाले मनुष्य का बदले में कोई में कोई दूसरा अपकार कर रहा है तो उस पर क्रोध करना व्यर्थ है। जो किया है सो भोगा जा रहा है। अब यदि उस पर क्रोध करते है तो एक भूल और बढ़ाते है। पूर्व काल में भूल किया था उसका फल तो आज भोग रहे है और उसी भूल को अब फिर दुहरायेगे तो भविष्य में फिर दुःख भोगना पड़ेगा। अब कोई पुरूष अपकार करता हो, अपनी किसी प्रकार की बरबादी में कारण बन रहा हो तो यह सोचना चाहिए कि यह पुरूष जो मेरा उपकार कर रहा है बुरा कर रहा है, अथवा मेरी किसी विपत्ति के ढोने में सहायक हो रहा है तो उसने जो कुछ इसके बुरा किया था उसका यह बदला दे रहा है। उसे इस पर रूष्ट होने की क्या आवश्यकता है? करणीय विवेक - भैया! तत्वज्ञानमें अपूर्व आनन्द है, अपूर्व शान्ति है। कोई तत्व ज्ञान के ढिग न जाये और शान्ति चाहे तो यह कभी हो नहीं सकता कि शान्ति प्राप्त हो। इससे जो अपना बुरा कर रहा हो उसके प्रति यही सोचना चाहिए या हिम्मत हो ऐसी तो ऐसा काम करें जिससे ऐसा बदला लिया जा सके जो वह जीवन भर भी श्रम करता रहे, वह बदला है भलाई करनेका, कोई पुरूष अपना अपकार करता है तो हम उसकी भलाई करे, वह पुरूष स्वयं लज्जित होगा और आपकी सेवा जीवन भर करेगा, ऐहसान मानेगा। बुरा करने वाले के प्रति हम भी बुराई की बात करने लगे, कोई अपने पर किसी तरह विपदा ढाता है तो हम भी उसपर विपदा ढाने लगें तो इससे शांति का समय न मिल सकेगा, विरोध ही बढेगा, अशान्ति ही बढेगी। इससे अपकार करने वाले का बहुत तगड़ा बदला यह है कि उसका भला कर दे तो वह जीवनभर अनुरागी रहेगा और किसी समय बहुत काम आयेगा। मानवता के अपरित्याग में कल्याण - भैया ! बुरा करने वाले के प्रति खुद बुरा करने लगें तो उसमें लाभ नही है सज्जनता भी नहीं है, बड़प्पन भी नही है। वहाँ तो ऐसी स्थिति हो जायगी, जैसे पुराणो में एक घटना आयी है कि कोई साधु जंगल में नदी के किनारे किसी शिलापर रोज तपस्या किया जाता था। साधु चर्याविधि से आहार के समय किसी निकट के गाँव चला जाता था और आहार लेकर लौटने पर उसी शिलापर तपस्या करता था। वह शिला बहुत अच्छी थी। एक दिन साधु के आने के पहिले एक धोबी आकर उसपर कपड़े धोने लगा। साधु ने देखा कि धोबी उस शिलापर कपडे धो रहा है, सो कहा कि यहाँ से तुम चले जावो, अन्य जगह कपड़े धोलो, यह शिला हमारे तपस्या करने की है। धोबी ने कहा – महाराज तपस्या तो किसी भी जगह बैठकर की जा सकती है, पर कपड़े 34
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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