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पुरूष है और मानता हो कि ये तो मेरे ही है, न्यारे कहाँ है, अथवा ये तो मेरे ही साथ रहेगे कैसे बिछुडत्र सकते है, ऐसी मिथ्या प्रतीति हो तो अभी धर्म करनेकी योग्यता ही नही है। यह सब पहिली बात है। जिसे धर्म करना हो उसको पहिले ये दो निर्णय बनाने चाहिएँ । कोई पुरूष ज्यादा शास्त्र नही जानता है, भाषाएँ नही सीखा है, अथवा उपदेश किए गए विषयोको नही समझ पाता है, न समझ पाये, लेकिन उसे यदि इन दो बातोका पक्का श्रद्वान है कि मेरा तो यह शरीर भी नही है । मेरा तो मात्र मैं एक ज्ञानप्रकाश मात्र आत्मा हूं और ये सब भिन्न चीजें है, दूसरी जगह पड़ी है, मेरेमे मिली हुई तक भी नही हे और ये सब विनाशीक है, इतना भी भान हो तो भी शान्तिका मार्ग मिल जायगा ।
संकटमोचक सहज अनुभव एक बार भी तो यह हिम्मत बनालो कि इन भिन्न पदार्थोके सजानेसे, अपने हृदय इन सब पदार्थों को रखने से अब तक आकुलता ही पायी है। मै अब इन किन्ही भी पदार्थाको मनमें नही रखना चाहता हूं। अपने उपयोगमें किसी भी बाह्रा पदार्थको न ले तो सहज आराम बन जायगा । उस विश्राममें जो शुद्ध ज्ञानप्रकाशका अनुभव होगा यही अनुभव संसारके संकटोसे दूर कर देगा। ऐसा होनेके लिए ये दो बातें निर्णयमें होनी चाहिएँ (1) समस्त भोगोके साधन भिन्न है और (2) ये नियमसे बिछुड़ेगे, इतने ज्ञानपर भी वैराग्य होना सम्भव है और सुलभ विषय भी उसे रूचिकर न होंगे। यह बात केवल साधुवोंकी नही कही जा रही है, यह तो संज्ञी जीवोकी बात कही जा रही है। जो भी संज्ञी जीव है मन सहित यावन्मात्र मनुष्य अथवा पशु पक्षी तक भी उनके यदि ये विषय रूचिकर नही हो रहे है, श्रद्वा में उनसे हित नही माना है तो उन सबके यह उत्तम तत्वज्ञान प्रकाश आनन्दस्वरूप अनुभवमें आ जायगा, और जब यह अपना परमात्मा अपने अनुभवमें आ जाय तो सब कर्म और संकट नष्ट हो जायेगे। इतनी बड़ी कल्याणकी पदवी पानेकी मनमें इच्छा हो तो व्रत, नियम, संयम कुछ न कुछ अवश्य ही करना चाहिए। उनमें सुलभ विषयोकी भी इच्छा न रहेगी जो तत्वज्ञान करेगे ।
भोगोमें अतृप्ति, तृष्णा व बलक्षयका ऐ इन भोगोके भोगने में यह बड़ा ऐब है कि ये भोग आगमी कालमें तृष्णाको बढ़ाते है, संतोष नही पैदा करते । भोग भोगनेके बाद भोगने लायक नही रहते, इस कारण भोगोका त्याग करना पड़ता है, मगर तृष्णावान जीव त्याग कहाँ करना चाहते है ? जैसे भोजन किया जाता है, कोई आसक्त होकर भी भोजन करे तो उसे भोजन छोड़ देना पड़ेगा, भोजन करता ही जाय ऐसा नही हो सकता। उसने जो भोजन छोड़ा तो क्या ज्ञान और वैराग्यके कारण छोड़ा ? अरे अब पेटमें समाता ही नही है इसलिए छोड़ना पड़ा। ऐसी ही समस्त विषयोकी बात है। किसी भी विषयोको यह मोही जीव त्यागता है तो क्या ज्ञान और वैराग्यसे त्यागता है? भोग भोगनेके बाद फिर भोग भोगने लायक नही रहता, यह इस कारण इसे त्यागना पड़ता है खूब इत्र फुलेल आदि सुगंधित चीजें सूँघते रहने के बाद वह कुछ समयको छोड़ देता है क्योकि कहाँ तक सूँघता
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