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________________ अतृप्ति बढ़ती जायगी, उनसे कभी संतोष न होगा। जैसे समुद्रमें जितनी नदियाँ मिलती जायेगी उतना ही समुद्र का रूप बढता जायगा। समुद्र कभी यह न कहेगा कि मैं सन्तुष्ट हो गया हूं, मुझे अब नदियाँ न चाहिएँ, अथवा ऐसे ही चाहे ईधनसे अग्नि तृप्त हो जाय, सूर्य पूरबके बजाय पश्चिममें ऊगे, कमल चाहे पत्थर पर पैदा हो जाये, पर भोग भोगने कभी तृप्ति नही हो सकती। जिसे भी संतोष मिलेगा त्यागसे ही मिलेगा। कल्याणमें तत्वज्ञानका विशिष्ट सहयोग - ज्यो-ज्यो सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते है त्यों-त्यों ज्ञानप्रकाश बढ़ता है। जो परिश्रम करके विषय साधन जुटाए जाएँ उसकी भी बात नही कर रहे, सुलभ अपने आप सामने हाजिर हो जाएँ भोगके साधन और फिर भी उनमें रूचि न जगे तो वहाँ ज्ञानप्रकाश बना है। जिसने अपने आत्माके ज्ञानानन्द स्वरूप का सम्वेदन किया है, जो अपने ज्ञानामृत रसका रूचिया है वह बाहा पदार्थो में उदासीन रहता है। इन समस्त समागमोको भिन्न और विनाशीक जानता है। यह भी बड़ी साधना है। तुमसे गृहस्थी छोड़ते न बने, न छोड़ो, पर इतना ज्ञान तो बनाए रहा कि ये सब भिन्न है, नियमसे नष्ट होंगे, इनका वियोग जरूर होगा, ऐसी बात हो तो मान लो और न हो तो मत मानो। यह निर्णय कर लो कि जितने भी जिसे समागम मिले है वे समागम उसके संगमें जायेगे क्या? कुछ भी तो न जायगा। स्वपरभेदविज्ञानका बल – हम आपका कुछ भी यहाँ नही है, शरीर तक तो अपना है नही, फिर धन दौलत और घर मकानकी तो कौन कहे? शरीर में यद्यपि यह जीव रह रहा है तो भी शरीर के स्वक्षेत्रमें शरीर है, शरीरके परमाणुओ में शरीर है, वह आत्माका स्वरूप नही बन जाता है और जीवके स्वरूपमें जीव है वह शरीर नही बन जाता। तो जब शरीरमें भी यह आत्मा नही है अर्थात् शरीररूप नही बन पाता यह तो अन्यरूप तो बनेगा ही क्या? ये सब पदार्थ समागम भिन्न है कि नहीं? यदि समझमं आ गया हो कि वास्तवमें मेरे आत्माको छोड़कर ज्ञानानन्दस्वरूपको तजकर जो कुछ भी यहाँ दिख रहा है और मिल रहा है ये भिन्न है, ऐसा ज्ञान हो गया हो तो आप फिर धर्म कर भी सकते है और यदि ज्ञान ऐसा नही बना है तो पहिले यही ज्ञान बनावो, निर्णय कर लो, थोडासा भी विचार करने पर एकदम स्पष्ट हो जाता है कि ये अत्यन्त भिन्न है। तो बस मान लो ऐसा कि सारे समागम मुझसे अन्यन्त भिन्न है, मेरा उनसे कुछ नही है। क्या ये समागम तुम्हारे साथ अनन्तकाल तक रहेगे या 10,050 वर्ष तक भी रहेगे, ऐसी कुछ भी उम्मीद है क्या? कुछ भी तो उम्मीद नही है । तो ये सब समागम बिछुड़ेगे कि नही? मनसे उत्तरदो। अगर बिछुड़ेगे यह बात हृदय में जम गयी है तो इतना मन लो। समागमकी भिन्नता व विनश्वरताके परिज्ञानका प्रताप - कोई पुरूष यदि इन दो बातोको हृदयसे मान लेता है कि जो भी समागम है -मकान, परिवार, सम्पदा ये सब भिन्न है और ये कभी न कभी बिछुड़ेगे, इतनी बात यदि हृदय में घर कर गयी हो तो वह धर्मात्मा 163
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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