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________________ है। इस रोगीके दिलसे पूछो, रोगी तो प्रायः सभी हुए होंगे। तो सभी अपने-अपने दिलसे पूछो, क्या दवा पीते रहने के लिए दवा पी जाती है? दवा तो दवा न पीना पड़े इसके ही लिए पी जाती है। ऐसे ही यहाँ निरखिये ज्ञानियोकी महिमाका कौन वर्णन करे, प्रवृत्ति एकसी है ज्ञानीकी और अज्ञानीकी । इस कारण कोई नही बता सकता है कि इसके चित्तमें वास्तविक उद्देश्य क्या है? लोग तो प्रवृत्ति देखकर यह जानेगें कि यह तो रोगी है, विषयोका रूचिया है, किन्तु घरमें रह रहा ज्ञानी, विषय प्रसंगमें आ रहा ज्ञानी, उसकी इन व्यवस्थाओको ज्ञानी पुरूष ही जानता है। अज्ञानी नही जान सकता है । चारित्र मोह का एक ऐसा प्रबल उदय है, उससे इसे कषायोकी पीड़ा हुई है अब वह कर्मजन्य कार्यो को कर रहा है किन्तु उन प्रवृत्तियोसे यह पुरूष उदास ही है। जिसे तत्व ही रूच राह है। और तत्वज्ञानसे सहज आनन्द मिल गया है उसके विषयोंमे प्रीति कैसे हो सकती है? भैया ! इसी सहज शुद्व आनन्दके पानेका अपना यत्न हो और हम अधिक से अधिक ज्ञानके अभ्यास में समय दे, यह एक अपना निर्णय बनाएँ । यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि । तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्वमुत्तमम् । ।38 । । विषयोकी अरूचिमें ज्ञानप्रकाशकी वृद्धि - ज्यों ज्यों सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते है त्यो त्यो यह आत्माका शुद्ध तत्व ज्ञानमें विकसित होता रहता है । जब तक इन्द्रिय के भोगोंने रूचि रहती है तब तक इस जीवके ज्ञान नही समा सकता है, क्योकि ये भोग विषय ज्ञानके विपरीत है। जैसे कोई उल्टी दिशामें चले तो इष्ट स्थानमें वह नही पहुंच सकता है। मान लो जाना तो है इटावा और रास्ता चला जाय करहलकी ओर तो इटावा कैसे मिल सकता है? ऐसे ही विषयभोगोकी गैलमें तो चलें और चाहे कि मुझे प्रभुदर्शन, आत्मानुभव, उत्तमतत्वका प्रकाश हो जाय तो कैसे हो सकता है? जब तक भोगोकी रूचि न हटे तब तक ज्ञानप्रकाश न होगा। सभी भोग झूठे है, असार है । भोगोसे आत्माको संतोष होता हो तो बताओ। स्पर्शन इन्द्रियका विषय काम बाधा विषयक प्रसंग, इनसे आत्माको क्या लाभ मिलता है? भोगोसे अतृप्ति – कोई गृहस्थ जिसके ज्ञानप्रकाश नही हुआ है, वैराग्य नही हुआ है, क्या वह यह हठ कर सकता है कि मै आज विषय भोगूँ इसके बाद फिर मै कल्पना भी न रक्खूँगा। ज्यों-ज्यों यह भोगता है त्यो त्यो इसकी कल्पना बढ़ती है। क्या कोई ऐसा सोच सकता है कि आज मैं बहुत मीठी चीज ख लूँ फिर कलसे मैं इस चीज की तरफ ध्यान ही न दूँगा, ऐसा कोई कर सकता है क्या? कोई भोगोको भोगकर चाहे कि मै तृप्त होऊँ तो यह नही हो सकता है। भोगोके त्यागसे ही तृप्ति हो सकती है, भोगोके भोगनेसे कभी तृप्ति नही हो सकती है। जैसे अग्निमें जितना ईधन डालते जावो उतनी ही अग्नि बढ़ती जायगी, उनसे कभी ईधन से तृप्त न होगी, इसी तरह जितना विषय भोग भोगो उतना ही भोगोसे 162
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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