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रहे। भोग भोगनेमें श्रम तो होता ही है। बिना राग, बिना प्रवृत्ति और बिना परिश्रमके कोई सा भी भोग नही भोगा जाता, उसको तो त्यागना ही पड़ता है।
विषयो ऊब - किसी सुन्दर रूपको निहारते रहो, सनीमा, थियेटर अथवा कोई सुरूप स्त्री, सुरूप पुरूष, किसी को भी निहारते रहो तो कहाँ तक निहारते रहोगे, आखिर पलक बंद ही करना पड़ेगा और अपना अलग रास्ता नापना ही पड़ेगा। तो उस मोही जीवने जो देखनेका विषय छोड़ा है वह क्या ज्ञान और वैराग्यके कारण छोड़ा है? अरे छोड़ना पड़ा है? छोड़ना नही चाहते है । ऐसे ही मानो रातके 10 बजे से खूब संगीत गायन सुना, नाच देखा धीरे-धीरे चार बज गए। आखिर उसको छोड़कर तो जाना ही पड़ता है। ऐसा तो है नही कि कोई 5-7 दिन तक लगातार नाच गायनमें बैठा रहे। नाच गायन खूब देखने सुननेके बाद अब उसमें शाक्ति नही रही कि ऐसे ही देखता सुनता जाय, इस कारण उसे छोड़ना पड़ता है तो ये भोग अतृप्ति ही पैदा करते है। कोई मनसे इन भोगोको छोड़ नही पाता है और जहाँ विषयोमें ऐसी आकांक्षा बन रही है वहाँ यह ज्ञानप्रकाश अपने अनुभवमें नही आ सकता है।
अन्तर्मिलनमें प्रभुमिलन - लोग भगवानके दर्शन करने को हैरान होते है। प्रथम तो इस मोही जीवको भगवानकी बात हो नही सुहाती, भगवान है भी कोई या नही, उसके स्वरूपका भान नही होता, और कोई भाव करता है तो भगवानके नाते से नहीं करता, मिन्तु मेरे घरके बच्चे खुश रहे, मेरे धन खूब बढ़ता रहे इस स्वार्थके नातेसे भगवानकी सुध लेता है क्योकि सुन रक्खा है ना कि भगवान सबको सब कुछ देता है। भगवानकी सुध लेना ही बड़ा कठिन है और कदाचित् किसीको सुध आए औश्र भगवानसे मिलनेकी अंतरंगमे उमंग भी करे, लेकिन वह अपने स्वरूपसे चिगकर बाहरमें कही भगवानको ढूँढा करे तो क्या भगवान मिल जायगा? आँखे तानकर, आसमानमें देखकर या किसी और दृष्टि देकर प्रभुसे
र्कोई मिलना चाहे तो नही मिल सकता है, प्रभुका दशर्न करना चाहे तो नही कर सकता है। हाँ अपने ही आत्मामें जो शाश्वत विराजमान स्वरूप है, चैतन्यभाव है उस चैतन्यस्वरूप पर दृष्टिदे तो उसके दर्शनमें प्रभुता का दर्शन हो जायगा, किन्तु इतनी कठिन बात उस पुरूष मे कैसे आ सकती है जो व्यसनोका लोभी है, पापोको छोड़ना नही चाहता मोहमें पगा है, ऐसे पुरूषको प्रभुका दर्शन नही हो पाता है।
ज्ञानप्रकाशमें विषयोकी अरूचिका विशिष्ट सहयोग - जैसे-जैसे सुलभ विषय भी, भोग साधन भी रूचिकर नही मालूम होते वैसे ही वैसे इस ज्ञानमें यह उत्तम तत्व समाता जाता हे। पहिले श्लोक में यह कहा था कि ज्यो-ज्यों ज्ञानस्वरूप ज्ञानमें आता रहता है त्यों-त्यो सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते। वहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि इसका भी कुछ उपाय है कि ज्ञान में यह उत्तम अंतस्तत्व समाता जाय। उसके उत्तर में दूसरे श्लोक में यह कहा है कि ये सुलभ विषय भी जब जीवोको रूचिकर न लगे, इन विषयोमें
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