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________________ और इसके अनुभव से इसके लक्ष्य से अपने आप में परमज्योति को प्रकट कर रहा है। यों ज्ञानी ने चिन्तन में इस आत्मस्वरूप का आश्रय लिया है। भुक्त्वोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः | उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ।।30 ।। भय के औटपाये - जब तक इस जीव की शरीर और आत्मा में एकमेंक मान्यता रहती है, शरीर को ही यह मै हूं ऐसा समझा जाता है तब तक इस जीव में भय और दुःख होता है। ये जगत के प्राणी जी भी दुःखी है उनमें दुःख का कारण एक पर्यायबुद्धि है। अन्यथा जगत में क्लेश है कहाँ? ये सब बाहा पदार्थ है, कैसा ही परिणमें, हमारा क्या बिगाड़ किया ? कोई भी कष्ट की बात नही है। आज वैभव है, कल न रहा, हमारा क्या बिगड़ गया, वह तो हमसे भिन्न ही था। रही एक यह बात कि अपना जीवन चलाने के लिए तो धन की जरूरत है? तो जीवन चलाने के लिए कितने धन की जरूरत है? तृष्णा क्यों लग गयी है, उसका कारण है केवल दुनिया में अपनी वाहवाही प्रसिद्ध करना, अन्यथा धन की तृष्णा हो नही सकती। धन आए तो आने दो। चक्रवर्तियो के 6 खण्ड को वैभव आता है आने का मना नही हे किन्तु उस वैभव को ही अपना सर्वस्व समझ लेना, इसके बिना मेरा जीवन नही है, यही मेरा शरण है, ऐसे बुद्धि कर लेना, यही विपत्ति की बात है। ज्ञानी का परिणाम - जब यह जीव इन समस्त बाहा पदार्थो को अहितकारी मानकर, अपने से भिन्न समझकर त्याग कर देता है तब फिर कभी भी ये संताप के कारण नही होते। ज्ञानी पुरूष इसी प्रयोजन के लिए चिन्तन कर रहा है कि मैने सभी पुद्गलो को भोग भोगकर बारबार छोड़ा, अब ये सारे भोग जूठे हो गये, एक ऐसे ही यह जितनी विभूति है धन सम्पदा है ये सब कई बार भोग चुके है और भोग भोगकर उन्हें छोड़ दिया था। भोगकर छोड़े गए पुदगल फिर भोगने में आ रहें है तब ये जूठे ही तो कहलाये। उन भोगो में मुझ ज्ञानी के क्या स्पृहा होना चाहिए? अनन्ते परिवर्तनो में गृहीत भोग - यह जीव अनादिकाल से पंच परिवर्तन में घूम रहा है। सबने सुना है कि परिवर्तन 5 होते है। छह ढाला में लिखा है यों परिवर्तन पूरे करे। पहिली ढाल के अंत में है। इस प्रकार यह जीव परिवर्तनको पूरा करता है। वह परिवर्तन क्या है? उनका नाम है द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन। द्रव्यपरिवर्तनका पहिला स्वरूप देखा-किसी जीवने अगृहीत ही पुद्गल परमाणुओ को, स्कंधोको ग्रहण कर लिया फिर अगृहीत स्कंध ग्रहणमें आया। गृहीत मानते है जिन पुद्गलोको पहिले भोग चुके और अगृहीतके मायने है जिन पुद्गलोको पहिले भोगा न था। यद्यपि ऐसी बात नही है कि कोई पुद्गल ऐसे भी हो जिन्हे पहिले कभी न भोगा था। लकिन परिवर्तन जबसे बताया है तबका हिसाब है। अनन्त बार भोगा हुआ ग्रहणकर ले 125
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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