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है, कुछ कर्तव्य न करे तो लोग कहेगे कि यह बड़ा कायर है, यह कुछ करता ही नही है, कुछ करे तो लोग कहेंगे कि यह सब विपरीत कार्य करता है। अरे संसार मे जो कुछ भी कार्य किया जाता है वह सब विपरीत ही तो है? आत्मा की करतूत किसमें है सो बतावो ?
आत्मा की करतूत तो ज्ञाता दृष्टा रहने में है, बाकी तो सब जंजाल है। यहाँ लोगो के निर्णय पर तुम अपना प्रोग्राम रखोगे क्या? इससे पूरा न पड़ेगा। लोग कुछ भी विचारें, तुम अपने आत्मा से न्याय की बात सोच लो और उस पर फिर डट जावो । दूसरो की वोट पर अपने पग बढ़ाने में बुद्धिमानी नही है किन्तु अपने अंतः ईश्वर से आज्ञा लेकर जिस काम को यह उचित समझता हो, स्वपर हितकारी जानता हो उस धुन को लेकर बढ़ते चले जाइए। तुम्हे जो कुछ मिलेगा अपने परिणमन से मिलेगा, इस कारण अपने परिणमन में ही शोधन कर लेना चाहिए कि मुझे किस तरह रहना है?
निःसकंट स्वरूप के अवलम्बन की स्वच्छता में बाधाओ का अभाव - भैया! मुझे किसी प्रकार का संकट नही है। निःसंकट स्वभाव का आलम्बन हो तो फिर क्लेश का कोई अवसर नही आ सकता। मेरे मृत्यु भय नही है, मेरे व्याधि नही है, मेरे व्यथा भी नही है। सर्व अवस्थाओ से शून्य केवल शुद्ध ज्ञानमात्र मै हूँ, ऐसा ज्ञानी जन आपने आपके स्वरूप का निर्णय करते है। जिसे धर्म पालना है, धर्म पालना है, धर्म में प्रगति बढ़ाना है उसे पहिले यह चाहिए कि वह अपने हृदय को स्वच्छ बना ले। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ इन विकारो से आत्मा में मलिनता बढ़ती है, पहिले स्वच्छ करिये अपना हृदय। अपने अंतरंग को पवित्र वही बना सकता है जो यथार्थ निज को निज पर को पर जान लेता है। मैं सर्व बाधाओं से रहित हूं, संकटो का मुझ में नाम नही है, ऐसी निःसंकट ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्व की श्रद्वा हो, उसमें ही उपयोग को समाया जाय तो सर्व प्रकार के संकट दूर हो जाते है।
___ माया से परे परमज्योति का चिन्तन - जो मिलकर बढ़ जाय और बिछुड़कर घट जाय वह तो सब व्यक्त माया है। जिस वस्तु में मिलन हो रहा है यदि वह सब वस्तु मिलक बढ़ गयी है और बिछुडकर घट जाने वाली है वह सब पुद्गल है। पूरण और गलन की जिसमें निरन्तर वर्तना चल रही है उसको पुद्गल कहते है। पुद्गल के ही संयोग से जीवन, पुद्गल के वियोग से मरण, पुद्गगल के वियोग से ही व्याधि और पुद्गल कहते है। पुद्गल से व्यथा है। यह मैं आत्मा समस्त पुद्गलो से विविक्त केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र शाश्वत अंतः प्रकाशमान हूँ, उसे न देखा, न आश्रय किया इसने। उसके फल में अब तक रूलता चला आया हूं| अब मोह को तजे, रागद्वेष को हटावे, अपने आधारभूत शुद्व आत्मतत्व को ग्रहण करे, ऐसा यत्न करने में ही जीवन की सफलता है अन्यथा कितने ही कीड़े कितने ही एकेन्द्रिय जैसे मरते है रोज-रोज वैसे ही मरण कर जाने में शुमार हो जायगी। ज्ञानी पुरूष अपने को सबसे न्यारा केवल शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप मात्र प्रतीति में ले रहा है
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