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________________ पन्ने होते है तो उस शास्त्र के पन्ने फिर क्रम से न रह पायेगें क्योकि एक महिला एक कागज उठायेगी दूसरी उस पर दूसरा कागज धरेगी। किसी किसी जगह तो इसी के लिए एक शास्त्र रिजर्व रहता है। तो इस तरह का शास्त्र का पढ़ना कुछ भी लाभ नही दें सकता है। संसारी काम से भी बढ़ करके सिलसिला चाहिए शास्त्राभ्यास के लिए। पहिले किन्ही गुरूओ से पढ़ना, क्रमपूर्वक पढ़ना, उसको कुछ अभ्यास में लेना और उसके बाद सिलसिले से उसे पढ़ना। यह शास्त्र का अभ्यास बढ़ाना बहुत काम है। इसमें समय देना चाहिए आजीविका के काम से ज्यादा। सांसारिक लाभ की उदयानुरूपता - भैया ! आजीविकाका काम आपके हाथ पैरकी मेहनत से नही बनता, वह तो उदयाधीन है, जैसा उदय हो उस पुण्य के माफिक प्राप्ति होती है। आप 10 घंटे बैठें तो और दो घंटे बैठे तो, जो उदय में है वही समागम होता है। अगर लोग नियमितता जान जाये कि ये इतने बजे दूकान खोलते है, तो वे ग्राहक उतने ही समय में काम निकाल लेंगे। एक बजाज के ऐसा नियम है कि 500 का कपड़ा बिक जानेपर फिर दूकान बंद कर दें और अपने नियमपर वह बड़ा दृढ़ रहता है, सो उसकी दूकान के खुलनेका जो टाइम है उससे पहिले ही अनेक ग्राहक बैठे रहते है, यदि इसका 500 का कपड़ा बिक गया तो फिर हमें कुछ न मिलेगा। 500 का कपड़ा घंटा डेढ़ घंटामें ही बिक जाता है और अपनी दूकान वह बंद कर दता है। अनुकूल उदयमें सुगम लाभ – भैया ! लाभकी बात उतनी ही है। जैसे पहिले कभी बाजारकी छुट्टी न चलती थी और आजकल बाजारकी छुट्टी चल रही है, तो बाजारकी छुट्टी हो जाने से व्यापार में हानि नही हुई। अगर कुछ हानि है तो वह और कारणो से हे ऐसे ही समय भी नियत हो गया। 10 घंटा दूकान खुलेगी, 8-9 बजे रातको बंद हो जायगी। गर्मी के दिनोमें मान लो 8 बजे खुलनेका टाइम हो गया, 12 घंटे दूकान चलें, पहिले कुछ समय नियत भी था। जितने समय तक चाहें उसमें जुटे रहे, तो समयकी बंदिशसे भी प्राप्ति में हानि नही हुई। तो यदि कोई एक भी व्यक्ति दृढ़ रहकर अपना हित करनेके लिए समय निकाले तो उसका उतने ही समयमें काम निकल सकता है। यह भी बहुत बड़ी आफत लगी है कि न स्वाध्याय सुन पाते है, न कभी धर्मका काम कर पाते है। चिन्ता ही चिन्ता रोजगार सम्बंधी लगी है, उसीमें ही प्रवृत्ति लगी रहती है। पर धन पाया और धर्म न पाया तो कुछ भी न पाया। जो पाया है वह तो मिट जायगा, किन्तु जो धर्मसंस्कार बन जायगा, जो ज्ञानप्रकाश होगा वह तो न मिटेगा, इस जीवको आनन्द ही वर्षायेगा। धर्मलाभ ही अपूर्व लाभ - भैया ! शास्त्राभ्यास में बहुत समय दो और श्रम भी करो, और व्यय भी करना पड़े तो होने दो, यदि अपने आपका ज्ञान हो जायगा तो समझो उसने सब कुछ निधि पा ली। तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्यौछावर करके भी यदि एक धर्मदृष्टि पायी, आत्मानुभव जगा तो उसने सब पाया। यह ही एक बात न हो सकी और 142
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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