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________________ केवल बहिर्मुखदृष्टि ही रही तो उसने क्या पाया ? जो पाया वह सब एक साथ मिट जायगा। लोग यह सोचते है कि हम मर जायेंगे, सारा धन यही रह जायगा तो वह अपने बालबच्चों के नाती पोतोंके ही तो काम आयगा। मगर मरकर वह जिस भी जगह पैदा होगा उसके लिए तो अब नाती बेटे कुछ भी नहीं रहे। न उन नाती पोतों के लिए वह कुछ रहा। भला यह तो बतावो कि आपके पूर्व जन्मका माता पिता कौन है, कहाँ है, कुछ भी तो याद नही है। वे चाहे जो सुख दुःख भोग रहे हों, पर अपने लिए तो वे कुछ नही है। इस कारण यह ममताकी बात इस जीवको हितकारी नही है। ज्ञा जन व ज्ञानदानकी सातिशय निधि - भैया ! जैसे अपने आपमें ज्ञानप्रकाश हो वह काम करनेके योग्य है। शास्त्राभ्यासका उपाय प्रथम तो है गुरूमुखसे अध्ययन करना, दूसरा है दूसरोको उपदेश देना। जो पुरूष दूसरोको विद्या सिखाता है उसकी विद्या दृढ़ हो जाती है। ज्ञानका खजाना एक अपूर्व खजाना है। धन वैभव यदि खर्च करो तो वह कम होता है पर ज्ञानका खजाना जितना खर्च करोगे उतना ही बढ़ता चला जायगा। तो दूसरो को पढ़ाना यह भी शास्त्राभ्यास का सुन्दर उपाय है। ज्ञानार्जनका तीसरा उपाय है धर्मकी चर्चा करे, जो विषय पढ़ा है उसका मनन करे, यों शास्त्राभ्याससे स्व और परका भेद विज्ञान करना चाहिए। तीसरा उपाय है स्वसम्वेदन। आत्मा अपने आपको जाने, अनुभव करे उसे स्वसम्वेदन कहते है। स्व है केवल ज्ञानानन्द स्वरूपमात्र, उसका सम्वेदन होना, अनुभव होना यह भी ज्ञानका उपाय है। इन सब उपायों से ज्ञानका अर्जन करना चाहिए। आत्मानुभूतिके आनन्दसे मुक्तिके आनन्दका परिचय - जो साधु संत ज्ञानी पुरूष आत्मा और परको परस्पर विपरीत जानता है और आत्माके स्वरूपका अनुभव करता है उसमें जो इसे आनन्द मिलेगा उस आनन्दकी प्राप्तिसे यह जान जाता है कि मुक्तिमें ऐसा सुख होता है। जब क्षणभरकी निराकुलतामें, शुद्ध ज्ञानप्रकाशमें उसे इसका आनन्द मिला है तो फिर जिसके सब मूल कलंक दूर हो गए है, केवल ज्ञानानन्दस्वरूप रह गया है। उन अरंहत सिद्व भगवंतोको कैसा सुख होता होगा? वह अपूर्व है और उसकी पहिचान इस ज्ञानीको हुई है। कोई गरीब 4 पैसेका ही पेड़ा लेकर खाये और कोई सेठ एक रूपयेका एक सेर वही पेड़ा लेकर खाये पर स्वाद तो दोनो को एकसा ही आया, फर्क केवल इतना रहा कि वह गरीब छककर न खा सका, तरसता रहा, पर स्वात तो वह वैसा ही जान गया। इसी तरह गृहस्थ ज्ञानी क्षण्भरके आत्मस्वरूपके अनुभवमें पहिचान जाता हैभगवतोको किस प्रकारका आनन्द है, भले ही वह छककर आनन्द न लूट सके लेकिन जान जाता है । यों यह ज्ञानी पुरूष आत्मज्ञानसे मुक्तिके सुखको निरन्तर पहिचानता रहता है। स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वंय हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरूरात्मनः ।।34।। 143
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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