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________________ स्वयंके द्वारा ही स्वयंके कल्याणका यत्न यह जीव उत्तम प्रयोजनकी अपने आपमें भी अभिलाषा करता है और उत्तम प्रयोजनके कार्यका खुद ही ज्ञान करता है और हितका प्रयोग भी यह स्वंय ही करता है। इस कारण आत्माका गुरु वास्तवमें आत्मा ही है। लोकमें जब किसीका कोई अभीष्ट गुजर जाता है और उसके हृदय बड़ा धक्का लगता है तब उस विहल पुरूषको समझाने के लिए अनेक रिश्तेदार अनेक मित्र खूब समझाते है और उपाय भी उसके मन बहलानेका करते है किन्तु कोई क्या करे, जब उसके ही ज्ञानमें सही बात आये, भेदविज्ञान जगे, तब ही तो उसे संतोष हो सकेगा, दूसरे हैरान हो जाते है, पर स्वंय समझे तो समझ आये। इससे यह सिद्ध है कि स्वयंके किएसे ही फल मिलता है । यहाँ मोक्षमार्ग प्रकरणकी बात कही जा रही है। उत्तम बातकी अभिलाषा यह जीव स्वयं ही करता, स्वंयमें करता और ज्ञान व आचरण भी स्वंय करता है। तब अपना घर परमार्थ से तो स्वंय ही है, किन्तु इससे प्राक् पदवीमें यह दोष ग्रहण नही करना चाहिऐ कि लो शास्त्र में तो कहा है कि आत्माका गुरु आत्मा ही है। अब दूसरा कौन गुरू है, सब पाखण्ड है, सब ऐसे ही है, ऐसा संशय न करना चाहिए क्योकि जिस किसीको भी अपने परमार्थ गुरूका काम बना, ध्यान बना, ज्ञानप्रकाश हुआ उसको भी प्रथम तो गुरूका उपदेश आवश्यक ही हुआ। आत्मलाभमें देशनाकी प्रथम आवश्यकता भैया ! कोई भी हो वह पुरूष किसी न किसी रूपमें ज्ञानी विरक्त गुरूवोका उपदेश लगे तब उसकी आँखे खुलती है। प्रथम गुरूकी देशना सबको मिली है, कोई ऐसे पुरूष होते है जिनको गुरू को कोई नियोग नही मिला और स्वयंही अपने आप तत्वज्ञान जगा, उनको भी इस भवमें नही तो इससे पूर्वभवमें गुरूकी देशना अवश्य मिली थी । यह तो शास्त्र का नियम है कि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में 5 लब्धियाँहोती है। सम्यग्दर्शन किसके होता है और किस विधि से होता है, उसके समाधानमें कहा गया है कि 5 लब्धियाँ हो तो सम्यग्दर्शन हो उसमें देशना तो आ ही गई। सम्यक्त्वकी पांच लब्धियोमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धि सम्यक्त्वकी लब्धियोमें पहिली लब्धि है क्षयोपशम लब्धि । कर्मोका क्षयोपशम हो, उदय कुछ कम हो तब इसकी उन्नतिका प्रारम्भ हाता है। जब इस प्रकारका क्षयोपशम हो तो दूसरी लब्धि पैदा होती है उसका नाम है विशुद्धि लब्धि । किसी उत्कृष्ठ चीज के लाभका नाम लब्धि है, परिणाम उसका उत्तरोत्तर निर्मल होता जाता है। जिसकी कषाये मंद हो वही पुरूष तो गुरूके सम्मुख बैठ सकेगा, गुरूकी विनय कर सकेगा, गुरूकी बात ग्रहण कर सकेगा। ऐसा व्यक्ति जो कषायोमें रत रहता है वह गुरूकी देशना सुनेगा ही क्यो? तो जब विशुद्वि बढ़ी, जब यह गुरूके उपदेशका लाभ प्राप्ता करता है । यहाँ तक तो कुछ बुद्विपूर्वक उद्यमकी बात रही। अब इसके बाद स्वंय ही ऐसा परिणाम निर्मल होता है। जिसके प्रतापसे कर्मों का बंध और बहुत बड़ी स्थिति वह घटाने लगता है, कम स्थितिका कर्म बाँधने लगता 144
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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