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________________ है। और उसही दरम्यानमें 34 अवसर ऐसे आते है जिनमें जो नियत प्रकृतियाँ है उनका बधं रूक जाता है।यह मिथ्यादृष्टि जीव की ही बात कह रहे है अभी। जिसको सम्यक्त्व पैदा हुआ है ऐसे मिथ्यादृष्टि की निर्मलता बतायी जा रही है। यों बंधापसररण भी करते है और स्थितिका बंध भी कम करते जाते है। तो इसके बाद फिर करणलब्धि पैदा होती है। सम्यक्त्वकी नियामिका करणलब्धि - प्रायोग्यलब्धि नाम है उसका जिससे बंधापसरण होता है और स्थिति कम होती है इन चार लब्धियों तक तो अभव्य भी चल सकता है जिसको कभी सम्यग्दर्शन नही होना है, ऐसा अभव्य जीव भी चार लब्धियोंका लाभ ले सकता है, किन्तु करणलब्धि उनके ही होती है, जिनको नियमसे अभी ही सम्यग्दर्शन होना है, उन करणोका नाम है अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। इन करणोका 8वे, 9वें गुणस्थान से सम्बन्ध नही है। जो अभी कहे जा रहे है, ये तो मिथ्यादृष्टिके हो रहे है अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। सम्यक्त्व उसके प्रतापसे उत्पन्न होता है। तो इस विधिसे आप जान गये होंगे कि सम्यग्दर्शनके लिए गुरूका उपदेश आवश्यक है, लेकिन यहाँ परमार्थ स्वरूप कहा जा रहा है कि गुरूका उपदेश भी मिले और न माने जरा भी तो क्या लाभ होगा? जैसे कहावत है कि पंचोकी आज्ञा सिर माथे पर पनाला यहीं से निकलेगा, ऐसे ही शास्त्रोकी बात सिर माथे, गुरूकी बात सिर माथे, पर धन वैभव घर, कुटुम्ब इनमें मोह वहीका वही रहेगा। इनमें अन्तर न आए तो उसका फल खुद को ही तो मिलेगा। स्वयंका हित स्वयंके ही द्वारा संभव – भैया ! सत्य आनन्द चाहो तो मोहमें ढिलाव खुदको ही तो करना पड़ेगा। ऐसा कोई गुरू न मिलेगा जिससे कह दें गुरूजी कि आप ऐसा तप कर लो जिससे मुझे सम्यग्दर्शन हो जाय। जैसे पंडोसे कह देते है ग्रहशान्ति के लिए कि तुम एकलाख जाप हमारे नामपर कर दो तो हमारा उपसर्ग टल जायगा। उसका उपसर्ग टले या न टले, पर उस पंडाका उपसर्ग तो तुरन्त टल जायगा। जो सामग्री लिखी-इतना सोना, इतना चाँदी, पंचरत्न, अनेक नाम ऐसे रख लिए कि पंडाका उपसर्ग तो टल जाता है। भला, दूसरेके विग्रहको कौन टालेगा? ऐसा वस्तुका स्वरूप ही नही है। कोई गुरूको नामका ध्यान करे, तप करे, उपदेश सुने, सत्सगमें रहे किन्तु खुदके ही परिणामोमें योग्य परिवर्तन न करे तो काम न चलेगा। तब स्वंयका गुरू स्वंय ही हुआ। जो आत्महितकारी उपदेश देता है अथवा अज्ञान भावको दूर करता हे वही वास्तवमें मेरा गुरू है, यह तो व्यवहारकी बात है, ऐसे आचार्य उपाध्याय आदिक हो सकते है, लेकिन वे निमित्तरूप रहें इस कारण व्यवहारमें गुरू हुए। औपचारिक व्यवहार - क्या कोई गुरूजन शिष्यके आत्माको, भक्तोके उपयोगको सम्यग्दर्शन रूप परिणमा सकते है? कभी नही। व्यवहारमें लोग कहा करते है कि तुम्हारे सुखसे हमें सुख है, तुम्हारे दुःख में हमे दुःख है, यह सब मोह में कहनेकी बात है, ऐसा 145
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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