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________________ परिग्रहण की कलुषता - भैया ! खूब भोग–भागकर बाद में उनके विभाग बनाकर त्यागे, वह भी ठीक है। अनेक लोग तो ऐसे होते है कि मरते-मरते भी नही त्याग सकते है। जुलाहा कपड़े बुनता है तो वह भी पूरा नही बुन सकता है, अंत में दो चार अंगुल छारी उसे छोड़ना पड़ता है किन्तु यह मोही मनुष्य अपने जीवन के पूरे क्षण पूरता ही रहता है। मरते जा रहा है और कहता जाता है कि मेरे लल्ला को दिखा दो। और कदाचित् मर न रहा हो, कुछ रोग ऐसा आ गया हो कि दम न निकल रही हो, भीतर ही भीतर भीचा जा रहा है, बोल नही सकता । ऐसी स्थिति में कदाचित् बाहर से बेटा बेटी आ जाये और उसी समय संयोगवश उसका दम निकल लाय क्योकि बहुत दिनो से ऐसा दम घुटी हुई तो हो ही रही थी उसी समय बैटा बेटी आ जाये तो लोग कहते है कि इसका बेटा बेटी में दिल था इसीलिए अभी तक नही मर रहा था। अगर ऐसी बात हो तो बेटा बेटी को कभी न आना चाहिए ताकि उसकी जान न निकले, कभी न मरे। ठंडी आत्मा हो गयी तब यह मरा ऐसा अनेक लोग कहते है। चलो, वे भी अच्छे है जो भोगो को भोगकर, भोगो की असारता समझकर एक ज्ञाननिधि आत्मतत्व की और लौ लगाते है। वैराग्य का तात्कालिक प्रभाव - भोग चुकने के बाद छोड़ने वालो से भी बढ़कर वे त्यागी है जो पाये हुए समागम में भी राग नही रखते है और त्याग देते है। वे बाल ब्रहाचारी तो विशेष के पात्र है जो भोगो में फंसते ही नही है। पलि से ही त्याग देते है। वे जानते है कि ये भोग साधन आरम्भ में दुःख दे, प्राप्त होने पर दुःख दे और अंत समय में दुःख दे। ज्ञानदृष्टि बिना कल्याण अंसभावना - कोई भी जीव अपनी ज्ञानदृष्टि किए बिना शान्त सुखी नही हो सकता। ईट पत्थर सोना चांदी इनमें कहाँ आनन्द भरा हुआ है जो वहाँ से आनन्द भरा करे। धन्य है वे पुरूष जिनका चित्त निर्मल है, जिन्होने अपने सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय पाया है और ज्ञानानुभव का आनन्द ले करके बैठे है। गृहस्थ जनो में भी अनेक महापुरूष ऐसे हुआ करते है जिन्हे कर्मोदय से बरजोरी भोग भोगना पड़ रहा है। परन्तु अंतरंग में अत्यन्त उदासीन रहते है ऐसे भी महापुरूष होते है। वे अपने गृहस्थ में भी आन्तरिक योग्य तपस्या बनाये हुए है। जीव, कर्म और कर्म फल - इन तीन तत्वो का जिनको यथार्थ विश्वास नही है वे भोगो का परित्याग कर ही नही सकते है। वे पूजा करें तो धन भोग बढ़ाने के खातिर करेंगे, वे धर्म साधन करे तो इसी लक्ष्य से करेंगे कि मेरे सम्पदा बढ़े, परिजन सुखी रहे, मौज बनी रहे, मौज बनी रहे, किन्तु यह समस्त मौज भी विपदा है। समागम की विपदा - भैया! यह सम्पदा का समागम भी क्लेश हे। यह जीव तो सबसे न्यारा स्वतंत्र एक शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप है, यह जब जन्मा तब क्या लाया और जब मरेगा तब क्या ले जायगा? इस जन्म मरण के बीच के कुछ दिन क्या मूल्य रखते है ? 63
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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