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________________ जैसे 50-60 वर्ष की उम्र में किसी दिन कोई स्वप्न आ जाय तो वह जो स्वप्न एक मिनट का है। उस सारी जिन्दगी में एक मिनट का दृश्य क्या मूल्य रखता है काल्पनिक है। उस एक मिनट का तो हिसाब बन सकता है किन्तु अनन्तकाल के सामने यह 50-60 वर्ष का जीवन कुछ भी हिसाब में नही आता है। यह कर्मो का फल है, यह करतूत है इस करतूत का यह फल होता है। वर्तमान में उसकी यह दशा है, उसका जो अशुद्ध परिणाम है, अन्याय का भाव है यही मुझ पर विपदा है। प्रत्येक परिस्थिति स्वयं की करनी का परिणाम - सब न्याय इस अंतरंग प्रभु के द्वारा हो रहा है। खोटा परिणाम किया तो तुरन्त संक्लेश हुआ, कर्मबधं हुआ और उसके फल में नियम से दुर्गति भोगनी पड़ेगी। शुद्ध परिणाम यदि है तो चाहे कितनी भी विपदा आये, विपदा का सत्कार करे, क्या विपदा है? बाहा पदार्थो का परिणमन है। मुझमें बिगाड़ तब होगा जब मै उन परिणमनो के कारण अपने आप ही अपने सिर मोल ले लिया करते है। विपदा किस वस्तुका नाम है? किसी भी वस्तुका नाम विपदा नही है, कल्पना बनायी, लो विपदा बन गयी। आज 50 हजार का कोई धनी है और कदाचित् 500रू की ही पूंजी होती तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था। अनेक पुरूष ऐसे गरीब पड़े हुए है, क्या ऐसी स्थिति हो नही सकती थी। समागमका उपकार में उपयोग करनेका अनुरोध - भैया ! ऐसा निर्णय करे कि जो मिला है वह मेरे मौजके लिए नही मिला है। उसका या सदुपयोग करे कि अपनी भूख प्यास ठंड गर्मी मिटाने के लिए साधारण व्यय करके यह समझे कि जो कुछ आया है यह परोपकार के लिए आया है। दसलक्षणीमें बोलते है ना - खाया खोया बह गया, कल्पना के विषयो में जितना धन लगाया है वह खाया खोया बह गया की तरह है और जिन उपायोसे लोकमे ज्ञान बढ़े, धर्म बढ़े, शान्ति मिले, मोक्षमार्गका प्रकाश मिले उन उपायोमें धन का व्यय किया तो उसको कहा करते है, निज हाथ दीजे साथ लीजे। ये भोग शुरूमें भी, मध्यमें भी और अन्तमें भी केवल क्लेशको ही उत्पन्न करने वाले हे। यह जानकर ज्ञानी पुरूष भोगोको हेय समझकर भोगते हुए भी नही भोगतें हुए के समान रहते है। विषयविषमें अनास्था - जब चारित्र मोहनीय कर्मका उदय निर्बल हो जाता है जिनके अर्थात् कर्मोकी शाक्तिक्षीण हो जाती है तो वे भोगोका सर्वथा परित्याग कर सकते है। जो पहिलेसे यह भावना भाये कि ये भोग पराधीन है, दुःखकारी भरे हुए है, पापके कारण है ऐसे भोगोका क्या आदर करना ? भोगते हुए भी भोगो का अनादर रहे तो वह भोगोसे मुक्त हो सकता है, परन्तु अज्ञानी जीव ऐसा नही कर सकते है, उनके तो व्यामोह लगा है। उन्होने तो अपने आनन्दस्वरूपका परिचय ही नही पाया है। ये विषय सुख वास्तव में विष ही है, यह अनुभव अज्ञानियोको नही होता है। विषयभोग सम्बन्धी यह विष अत्यन्त भंयकर है। जो प्राणी विषयविषका पान करते है वे इस विषके द्वारा भव भवमें विषय सुखकी 64
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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