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________________ कल्पनामें रहते हुए विषयोसे उत्पन्न हुए दुःखको सहते रहते है। दुःख सहतें रहते है अज्ञानी, फिर भी कुछ चेत नही लाते है। अन्तर्बाह्रा सात्विक रहन - भैया ! मोह को महत्व न दे, अपने आपका यह निर्णय रखे कि धन वैभव प्रशास्त नही होता क्योकि धन होगा तो बिरले ही पुरूषके भले ही वहाँ भोग उपभोगकी आसक्ति न हो सके पर प्रायः करके अज्ञानियोसे ही भरा हुआ यह जगत है।इस कारण वे भोग और उपभोगोमें आसक्त हो जाते है। भोग उपभोगकी लीनता अशुभ कार्यका कारण है और भोग उपभोग को उत्पन्न करने वाला धन है, तो इस धनको कैसे प्रशस्त कहा जा सकता है? हाँ कोई बिरले गृहस्थ जो बड़े विवेकी है अपने आडम्बरको, रहन सहनको सात्विक वृत्तिसे करते है, जिनका लक्ष्य यह है कि मेरे प्रयोजनमें इतना व्यय होगा, शेष सब परोपकारके लिए है। महापुरूषोके जीवनका लक्ष्य - भैया ! हुए भी है कुछ ऐसे राजा जो स्वय खेती करके जो पायें उसमें अपना और रानीका गुजारा करते थे, और राज्य से जो कर मिला, सम्पदा आयी उसका उपयोग केवल प्रजा जनोके लिए किया करते थे। उनका यह विश्वास था कि जो कुछ प्रजासे आया है वह मेंरे भोगनेके लिए नही है वह प्रजा के लिए है। कुछ बिरले संत ऐसे, पर प्रायः करके मोही प्राणी है जगत के सो वे धनका दुरूपयोग ही करतें है। अपने विषय साधनों में, मौजमें, संग्रहमें धनसंचय के कारण मैं बड़ा कहलाऊँगा, लोगोमें मेरी इज्जत रहेगी। इन सब कल्पनावोके आधीन होकर आसक्त रहा करते है। ऐसे इन विपत्तिजनक भोगोसे कौन पुरूष सन्तोष प्राप्त कर सकेगा ? ज्ञानी पुरूष इन भोगोकी चाहमें नही फंसता है। भवन्ति प्राप्य यत्संगमशुचीनि शुचीन्यपि। सं कायः संततापायस्तदर्थ प्रार्थना वृथा।।18 || शरीरका रूपक - जिस शरीर के सम्बंधको पाकर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते है ऐसा शरीर और यह निरन्तर विनाश की और जाने वाला है। उस शरीर के आशा, प्रार्थन करना व्यर्थ की बात है। इसका नाम काय है। जो संचित किया जाय उसना नाम काय है। यह शरीर अनेक स्कंधो के मिलने से ऐसी शक्लका बन जाता है। इसका नाम शरीर है, जो जीर्ण हो, शीर्ण हो, गले उसका नाम शरीर है। यदि व्युत्पतिकी दृष्टि से देखा जाय तो जवानी तक तो इसका नाम काय कहो और बुढ़ापे में इसका नाम शरीर कह लो। काय उसे कहते है जो बढ़े, शरीर उसे कहते है जो गले। यह काय पुद्गलका पिडं है। यह शरीर जिन परमाणुवोसे बना है वे परमाणु भी स्वयं अपवित्र नही है। फिर उन स्कंधोपर जब इस जीव ने अपना कब्जा किया तब ये परमाणु स्कन्ध शरीर भी अपवित्र होगए। जब तक जीव जन्म नही लेता, गर्भमें नही आता है तब तक ये शरीर के स्कंध यत्र तत्र बिखरे पड़े 65
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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