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________________ पवित्र है। जहाँ इस जीवने उन शरीर स्कंधोपर अपना कब्जा किया कि ये अपवित्र बन जाते है। शरीर की अशुचिताके परिज्ञानका लाभ – लोग कहते है कि शरीर अपवित्र है, ठीक है, कहना चाहिए क्योंकि शरीर के मोहमें आकर यह जीव अन्याय कर डालता है, खोटी वासनाँए करता है। जिन वासनाओमें कुछ तत्व नही है, केवल मनकी कल्पनाकी बात है, आत्माकी बरबादी है सो ऐसी खोटी कल्पनाएँ जिसमें शरीर का आकर्षण है, आत्माको संकटी करने के लिए हुआ करती है, इस कारण शरीर को अपवित्र बताना बहुत आवश्यता बात है। कहना ही चाहिए शरीको अशुचि, किन्तु कुछ ओर प्रखर दृष्टि से निरखो तो यह शरीर स्वंय कहाँ गंदा है। यह एक पुदगलका पिण्ड है। जो है। सो है। इस हालत में भी जो है, सो है। इस हालत मे भी जो है जो है, और जब इस शरीर को जीवने ग्रहण न किया था उस समय तो ये स्कंध बहुत पवित्र थे । हाड़ मांस रूधिररूप भी न भे लेनिक यह शरीर गंदा किस कारण बन गया है ? यह केवल रागी मोही जीवके सम्बंधका काम है। इस कराण शरीर गंदा ही है, यह रागी द्वेषी मोही जीव गंदा है। शरीर तो एक पुद्गल है। जैसे ये चौकी काठ वगैरह है ये भी पुद्गल यह शरीर भी पुद्गलका है, पर यह और ढंगका पुद्गल है। इस शरीर में गंदगी क्या है? जो है हमको उसके ज्ञाता है रहना है, जान लेना है। निर्विचिकित्सा - भैया ! निर्विचिकित्सा अंग जहाँ बताया जाता है सम्यग्दर्शनके प्रकरणमें वहाँ तीन बाते कही जाती है। एक तो अशुचि पदार्थको देखकर घृणाकर भाव न लाना। ज्यादा थूकाथाकी वाली चीजको निरखकर मुंहमे पानी बह आना। जैसे थूकना पड़ता है तो यह भी थूकाथाकी घृणाका रूपक है । साधु संतजन ऐसी थूकाथाकी नही किया करते है। अन्य अपवित्र पदार्थाको निरखकर वे घृणा ग्लानि नही करते। व्यवहार जरूर उनसे बचनेका रहता है, क्योकि स्वाध्याय करना, सामायिक करना ये सब कार्य अपवित्र हालतमें नही होते है। लेकिन कोई घृणित वस्तु सामने आये तो उसको देखकर ज्ञानी पुरूष नाक भौहं नही सिकोड़ते है, योग्य उपेक्षा करते है। दूसरी बात यह है कि किसी धर्मातमा पुरूषकी सेवा करते हुऐ में तो ग्लानि रंच भी नही रहती है। यहाँ उससे भी अधिक निर्जुगुप्सा भाव रहता है। साधु धर्मात्मा जन रोगी हो, मल मूत्र कर दे तो भी घृणा नही करते। जैसे माता अपने बच्चे की नाक अपनी साड़ी से ही छिनक लेती है और घृणा नही करती है। दूसरे लोग उस बच्चेस घृणा करते है, अरे इसके तो नाक निकली आ रही है। इसे सम्हाल लो, पर मां उसे बड़े प्रेमसे पोछ लेती है। माँ ही बच्चे से घृणा करने लगे तो बच्चा कहाँ जाए ? यो ही धर्मात्मा जन धर्मात्माओके प्रति माताकी तरह व्यवहार रखते है। अगर धर्मात्मा पुरूष ही धर्मात्मासे घृणा करने लगें तो वे कहाँ जाए ? उनके कहाँ निर्जुगुप्सा रहेगी, और तीसरी बात यह है कि आत्मामें जो क्षुधा, तृषा, वेदना आदि के कोई 66
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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