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________________ स्थिति होती? क्या हो सकता था कुछ? नही । यो आत्मा ज्ञानमयी है, ज्ञानघन है, ज्ञानात्मक है। इस अंतस्तत्व को अध्यात्मयोगी पुरूष ही जान सकता है। जिन्होने पर को पर जानकर निज को निज जानकर परपदार्थो के विकल्पो को तोड़ा है और केवल अपने आपके स्वरूप में ही रत रहा करते है ऐसे पुरूषो को ही इस शुद्ध चैतन्यस्वरूप का दर्शन होता है और इस चित् चमत्कार के अनुभव से ही यथार्थ मर्म को समझते है एवं विश्व के समस्त प्राणियों को एक चैतन्य के रूप में देखा करते है। संयोगज भावो की आत्मस्वरूप से भिन्नता - यह मैं यथार्थ शुद्ध केवल आत्मा केवल योगिन्द्रो के द्वारा ही परिचय में आ सकता हूं। अज्ञानी जन अपने आप की बात को नही समझते है। ऐसा यह मैं आत्मा सबसे विविक्त शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप हूं, जितने भी बाहा भाव है, रागद्वेषादिक है, वे सब संयोगी भाव है। कर्मो के सम्बधं से यह भाव बनता है, जिसको यह प्रतीति नही है कि ये भाव सब संयोगी है, मरे स्वरसतः होने वाले नही है, वे कभी मुक्त नही हो सकते। जिन अपराधो से मुक्त होना है उन अपराधो का मेरे में वस्तुतः प्रवेश नही है। मेरे स्वंय के उन अपराधो का भान हुए बिना कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकेगी? समस्त ये औपाधिक भाव, संयोगभाव मेरे से सर्वथा स्वभावतः दूर है। यह सब जानकर कर्तव्य यह है कि जो उपादेय है उसे ग्रहण करें और जो हेय है उसका परिहार करे। उपादेय है यहाँ अपने आपका यह शुद्व ज्ञानानन्दस्वभाव। तन्मात्र ही अपने को अनुभवे तो वहाँ संकटो का नाा ही नही है। जहाँ इस निर्विकार स्वरूप से चिगे और संयोग लक्षण बाले इन जड़ पदार्थो में ममत्व बुद्धि की, संकट वही से बन जाते है। प्रधान और गौण कर्तव्य – उद्देश्य जीवन में एक प्रधान होता है और एक गौण होता है जैसे किसको मान बनवानाहै, तो मकान बनवानेका उद्देश्य तो प्रधन है और उस मकान बनवाने के प्रसंगमे अनेक काम किए जाते है, जैसे ईटें खरीदना है, सीमेन्टका परिमिट बनवाना है, अमुक वस्तु लेना है, मजदूरो को इकट्टा करना है, ये सब रोज-रोज प्रोग्राम बनते है, पर ये प्रधान उद्देश्य तो इसका एक है, जो भी इसने सोचा है। ऐसा ही ज्ञानी पुरूषका मुख्य उद्देश्य केवल एक ही होता है - निरपराध ज्ञानानन्दस्वरूप निज कारण प्रभुका दर्शन करना, चिन्तन और मनन करना। इसके अतितिक्त इसकी ही साधनाके लिए दर्शन पूजन स्वाध्याय, जाप, सत्संग आदिक जितने भी प्रयोग है वे सब प्रयोग केवल एक इस उद्देश्यको सिद्ध करने के लिए है, वे मुख्य उद्देश्य नही है, वे सब गौण है। हमारा मुख्य उद्देश्य है संयोगजन्य भाव से मुक्त होकर सहज आनन्दस्वरूप में मग्न रहना, इसकी उपलब्धि जैसे हो इसका प्रयत्न करना यह हमारा गौण प्रोग्राम है। ज्ञानीका निर्णय - ज्ञानी पुरूष अपने आपके स्वरूपका निर्णय कर रहा है। मैं एक हूं, अपने लिए मै अद्वैत हूँ। अपनी सब स्थितियोमें मैं मैं ही हूं। मेरा कोई दूसरा शरण अथवा साथी नही है समस्त कामनावोसें रहित हूं। ज्ञानानन्दघन अध्यात्मयोग द्वारा मै सर्व 115
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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