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पर के जानन का व्यवहार – मै जानता हूँ किन्तु इस जानते हुए को ही जानता हूँ, किसी अन्य को नही जानता। भेदभाव में यह बात देर में बैठेगी पर एक युक्ति से देखो मै जितना जो कुछ हूँ और जो यह मै जो कुछ परिणम सकता हूँ वह अपने में ही परिणमँगा किसी अन्य में नही। मेरी क्रिया, मेरी चेष्टा मेरे में ही होकर समाप्त होगी। जो कुछ भी मेरी क्रियाये है वे सब मेरे आत्मा मे ही होगी य अन्य मे होगी? तब इस बाहा पदार्थ को वास्तव मे जाना कैसे? अपने आपको जाना है, पर उस जानन में जो बाहा पदार्थ विषय होते है उनका नाम लगाया जाता है। जैसे एक लोक दृष्टान्त लो। हम दर्पण को देख रहे है, बड़ा दर्पण है, हमारी पीठ पीछे दो चार बालक खड़े है। उन बालको के निमित्त से इस दर्पण मे भी उन जैसा प्रतिबिम्ब हो गया है। हम क्या कर रहे है ? केवल दर्पण को देख रहे है और बताते जा रहे है सब कुछ, अमुक लड़के ने हाथ उठाया, अमुक ने पैर उठाया, अमुक ने हाथ हिलाया, उन लड़को की सब बाते हम कहते जाते है, जानते जाते है, पर हम देख रहे है केवल दर्पण को । तो जैसे हम केवल दर्पण को देख रहे है पर बातें सब लड़को की बता रहे है इसी प्रकार हम केवल ज्ञानमयी आत्मा को जान रहे है और बातें बताते है दुनियाभर की । पूर्वजो की, इतिहास की, लोक की स्थिति की, क्षेत्र की। सभी प्रकार की बातें बताते है, पर हम जान रहे है केवल अपने आत्मा को।
ज्ञाता में ज्ञान का चमत्कार - कैसा विशाल चमत्कार है, कैसा ज्ञानस्वरूप यह आत्मा है कि यह केवल ज्ञानस्वरूप आत्मतत्व को जार रहा है और बखान करता है अनेक पदार्थो का। मै ऐसा शुद्व हूँ, मैं जो कुछ करता हूँ, अपने को, अपने से, अपने में, अपने लिए अथवा करने का कुछ नाम ही नही है। मै जो कुछ भी हूं, बर्त रहा हूं उतना ही मात्र द्रव्य पर्यायात्मक सम्बंध है। इस प्रकार यह ज्ञानी पुरूष अपने आत्मा के स्वरूप को निरख रहा है, मै शुद्व हूं। स्वभाव पर दृष्टि देकर यह बात समझी जा रही है कि मै अपने आप अपनी ही सत्ता के कारण अपने में शुद्ध हूं, ज्ञानमय हूं।
पदार्थो का पर के द्वारा अभेद्य स्वरूप - भैया! जितने भी पदार्थ होते है सबमें अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशवत्व, प्रेमयत्व ये 6 गुण होते है। अस्तित्व के कारण ये पदार्थ सत् है, इनमें है पना है, इनका अस्तित्वपना है वह अस्तित्व गुण का काम है। वह पदार्थ वही रहे, दूसरा न बन जाये, दूसरे रूप न हो जाय, अपने मे ही सत् है, परसे असत् है, ऐसा नियम वस्तुत्व गुण से हुआ है। प्रत्येक पदार्थ निरन्तर परिणमता रहे, परिणमन को छोड़कर वह विश्रात नही हो सके, यो द्रव्यत्व गुण के कारण यह निरन्तर परिणमता रहता है। अगुरूलघुत्व गुण से यह नियम बन जाता है कि यह पदार्थ अपने में ही परिणमेगा, किसी दूसरे में न परिणमेगा। प्रदेश इसमें है ही और प्रमेय भी है, इस प्रकार आत्मा में सभी पदार्थो की भाँति ये 6 गुण है, इसके अतिरिक्त सूक्ष्मत्व आदि अनेक गुण है किन्तु कल्पना करो कि इस आत्मा में ज्ञान गुण न होता और बाकी गुण होते तो क्या
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