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शरीर में फिर मुंह ही न रहता क्योकि उसका मुंह तो दर्पण में चला गया। दो मुंह तो नही है, हम आपके एक एक ही तो मुंह लगा है। इसलिए वह दर्पण से हटा लो या मुंह को हटा लो वहाँ से तो कहाँ रहा मुंह का प्रतिबिम्ब? वह स्वच्छ का ही स्वच्छ है। जिस समय दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब झलक रहा है उस काल में भी ऐसा लगता है कि यह प्रतिबिम्ब दर्पण के ऊपर लोट रहा है। दर्पण में थमकर नही रह पाता। वह दर्पण से पृथक है।
विभाव का किसी भी पदार्थ में टिकाव का अभाव – ऐसे ही जो रागद्वेष भाव उत्पन्न होते है आत्मा में, ये रागादिक भाव क्या कर्म के है? यदि कर्म के रागादिक होते तो कर्म दुःखी हो रहे है, फिर मुझ जीव को क्या पड़ी है कि व्रत करे, तप करें, साधना करे। ये रागगादिक तो कर्मो में है, दुःखी हो तो कर्म दुःखी हो, पर ऐसा तो नही है। ये रागादिक भाव कर्म मे नही है, ये तो चेतन में ही परिणत हो रहे है, लेकिन क्या ये रागादिक इस चैतन्य के स्वभाव से उठे हुए है ? क्या इस जीव के स्वभाव में रागद्वेष करना पड़ा है ? इस तत्व को उसही दृष्टि में निहारे जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब की बात निरखी गयी थी। दर्पण में प्रतिबिम्ब डगमग डोलता रहता है। सामने मुख है तो दर्पण मे प्रतिबिम्ब है, मुख को थोड़ा एक तरफ किया तो वह दर्पण का प्रतिबिम्ब भी एक तरफ हो गया। मुख हटा लिया तो प्रतिबिम्ब हट गया, मुख दर्पण के सामने कर लिया लो प्रतिबिम्ब आ गया। क्या दर्पण की चीज इस तरह से अस्थिर होती है? जरा-जरा सी देर में बिल्कुल हट जाये, जरा सी देर में फिर आ जाय, क्या ऐसी बात दर्पण में पायी जाती है ? नही। यह दर्पण का प्रतिबिम्ब नही है, यह औपाधिक है। ऐसे ही ये रागद्वेष मेरे स्वरूप में नही है, ये औपाधिक है ये कर्मो की उपाधि से उत्पन्न हुए है, कर्मो का उदय है वह निमित्त है, जीव में वे रागादिक होते है ये रागादिक मानो आत्मा में ऊपर-ऊपर ही लोट रहे है। भीतर तो स्वरूप और स्वभाव ठोस रूप से बना हुआ है।
आत्मा में भेदषट्कारकता का अभाव - यह आत्मा ज्ञानघन है आनन्दघन है। जो इसका स्वरूप है वह इसके स्वरूप में स्वभाव में स्थिरता से है। रागादिक मुझ आत्मतत्व मे नही है। मैं निर्मम हूं, शुद्व हूं। मै हूं और परिणत हो रहा हूं, पर ये परिणमन, ये वर्तमान परिवर्तन किसके द्वारा हो रहे है, किसमें हो रहे है, किसके लिए हो रहे है ? यह भेद यहाँ नही है। बस ज्ञाताद्रष्टा बनो और यह निरख लो कि यह जीव है और इस तरह परिणम रहा है, वह दूसरे पदार्थ से नही परिणमता, वह दूसरे पदार्थ मे नही परिणमता। समस्त कारक चक्र की प्रक्रियाये इस आत्मतत्व में नही है यह मै परमार्थतः जाननहार हूं, मैं जानता हूं, किसको जानता हूं? इस जानते हुए निजस्वरूप को जानता हूं, किसी बाहृा पदार्थ को नही जान रहा है किन्तु बाहापदार्थ के सम्बधं में अपने आपका उस तरह से ज्ञान प्राप्त कर रहा है।
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