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________________ कम अंतरंग में तो सच्चाई रखे। जैसे कि वस्तुपर जितना लाभ लेना है उसपर उतना ही लाभ रखे। यह मनमें भावना न करे कि मै किसी का नीतिसीमा से भी अधिक धन ले लूँ। व्यापारिक सच्चाईका आधुनिक एक उदारण जो सर्वथा सत्यव्यवहार करते है व जो निर्णयमें सत्य व्यवहार करते है, बहुत जगह मिलेंगे इस तरह के मनुष्य । पहिले प्रकार का मनुष्य मुजफ्फरनगर में जाना गया था। सलेखचंद स्टेशनरीकी दूकान कितनी बड़ी है? तो वकील थे। राजभूषण, जो अब भी है। बोले कि तीन चार फुट चौड़ी और 4.5 फुट लम्बी है सलेकचन्द बोले कि साहब इसके पीछे एक हाल भी है जज सुन बड़ा हैरान हो गया, कही दुकानदारको ऐसा करना चाहिए ? फिर जज पूछता है कि राज कितने की बिक्री होती है? तो वकील कहता है कि कभी 20रू की, कभी 30रू की और कभी 50रू की। जब जजने सलेखचंद की ओद देखा तो सलेंखचन्द कहते है हाँ साहब कभी 20रू की बिक्री होती है कभी 30 की होती है कभी 50, की होती है और कभी 500रू तक की भी हो जाती है। और भी जजने एक दो प्रश्न किया । तो जज कहता है कि वकील साहब! तुम कितना ही भरमावो, पर यह धनी तो अपनी सच्चाई पर ही कायम है। धनीका ही वकील था। तो उस जजने उसी हिसाब से टैक्स लगाया जो सलेखंचंदकी बहीमें था और यह नोट कर दिया कि हमने ऐसा सत्य पुरुष अभी तक नही देखा । - लेनदेनके समय की सच्चाईका एक आधुनिक उदाहरण दूसरी बात यह है कि भले ही ग्राहकों से कुछ भाव तावकी बात करे पर जब तय हो जाय और माल दिया जाने लगे तो ज्यादा दाम अगर आ रहे हो तो उसके दाम वापिस कर दे। ऐसे भी कई होते है, अभी भादोमें जो बाबूलाल हरपालपुरके आये थे। उनके ऐसा नियम है। कोई कपड़ा दो रूपया गजका पड़ा हो और सवा दो रूपया गज देना हो तो भाव ताव करने पर यदि 2||रू0 गज ठहर गया तो देते समय 2 ।। रू गज के दाम रखकर फिर 4 आने गजके दाम वापिस कर देते है। ग्राहक कुछ कहता है तो वह कहते है कि हमारा नियम है हम इतने से ज्यादा नही ले सकते। यदि ग्राहकने कहा कि ठहराया तो इतनेका ही था ना, तो वह कहते कि सभी दूकानदार भाव ठहराते, हम न ठहराये तो ग्राहक न आये, सो भाव ठहराना पड़ता है, पर हम अपने नियम से ज्यादा नही ले सकते । तो दूसरे नम्बरकी यह भी सच्चाई है। ज्ञानीका चिन्तन जो अंतरंग में केवल धनसंचय करना, किसी भी प्रकार हो, अधिक से अधिक दूसरों का धन आना ही आना चाहिए ऐसा परिणाम हो तो वहां सन्मार्ग तो अपनाया ही नही जा सकता। ज्ञानी संत तो यो विचारता है कि जो धन चाहते है वे धनकी अप्राप्ति में दुःखी होते है । जो धनी है उन्हे तृप्ति नही होती है इस कारण दुःखी है। सुखी तो केवल आकिञ्चन्य आत्मस्वरूपको अपनाने वाले योगी जन होते है । सम्पत्ति और विपत्ति ये दोनो ही ज्ञानी पुरूषो के लिए एक समान है। विपत्तिको भी वे औपाधिक चीज 55
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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