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________________ मानते है और क्लेश का कारण मानते है। इस धन को पुण्य का उत्पादक समझना भ्रम है यदि यह धन पुण्यका उत्पादक होता तो बड़े बड़े महाराज चक्री आदि क्यों इसका परित्याग कर देते ? विवश होकर धन कमाना पड़ता है तो विवेकी जन उस अपराधके प्रायश्चितमें अथवा उस अपराध से निवृत्त होने की टोहमें ऐसा परिणाम रखते है। जिससे दान और उपकार में धन लगता रहता है। आनन्दसमृद्धि का उपाय हे आत्मन् ! यदि तुझे आनन्दकी इच्छा हो तो परपदार्थो इष्ट अनिष्ट बुद्विका परित्याग कर और शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप निज तत्वका परिचय कर। शुद्व अनादि अनन्त स्वभाव आत्माके आश्रयसे ही प्रकट होता है। आनन्दमयय आत्मतत्वको रखनेवाले उपयोग में ऐसी पद्धति बनती है जिससे आनन्द ही प्रकट होता है वहाँ क्लेशके अनुभवका अवकाश ही नही है । जो पुरूषार्थी जीव सत्य साहस करके निर्विकल्पज्ञानप्रकाशकी आस्था रखते है उन्हीका जीवन सफल है। आनन्द आनन्दमय परमब्रहृम की उपासनामें है। आनन्द वास्तविक समृद्धि में है । समृद्विसम्पन्नता होनेका नाम ही आनन्द है। परमार्थसमृद्विसम्पन्नता में निराकुलता होती ही है। यह सम्पन्नता त्यागमय स्वरसपरिपूर्ण आत्मतत्वके अवलम्बनसे प्रसिद्ध होती है। - आरम्भे तापकान् प्राप्तावत्प्तिप्रतिपादकान् । अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः । । 17 ।। भोगके उद्यमें हैरानिया ये विषयोके साधन प्रारम्भमें, मध्यमें, अंत मे सदा दुख के ही कारण होते है, फिर भी मोही जीव दुःखो को भोगते जाते हे और उन भोगसाधनोसे ही रति करते रहते है। ये भोग आरम्भमें संतोष उत्पन्न करते है । भोगो के साधन जुटाने के लिए कितना उद्यम करना पड़ता है? कमाई करे, रक्षा करे, चीजे जोड़े, कितने क्लेश करते है, एक बढिया भोजन खाने के लिए 24 घंटे पहिले से ही तैयारियाँ करते है और फल कितना है, उस भोजन का स्वाद कितनी देरको मिलता है, जितनी देर मुखमें कौर है । वह कौर गले के नीचे चला गया, फिर उसका कुछ स्वाद नही । पेट में पड़े हुए भोजन का स्वाद कोई नही ले सकता है। और फिर उनके साधन जुटाने में कितना श्रम करना पड़ता है ? आज बड़े-बड़े लोग हैरानी का अनुभव कर रहे है कि बड़े विचित्र कानून बन रहे है, टैक्स लगा रहे है, मुनाफा नही रहा, पर उनकी और दृष्टि नही है जो 40-45 रूपया माह पर दिनभर जुटे रहते है। कैसे दृष्टि हो, दृष्टि तो विषयसाधनो के भोगने की है। ये भोगो के साधन आरम्भ में संताप उत्पन्न करके शरीर, इन्द्रिय और मन को क्लेश के कारण होते है । सेवा, वाणिज्य कितनी ही प्रकार के उद्यम करने पड़ते है तब भोगो के साधन मिल पाते है । 1 56
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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