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रावण का युद्व राम रावण की ही तरह हुआ है। अभी किसी मनुष्य की तारीफ करना हो और थोड़े शब्दो में कहना हो और बहुत बात कहना हो तो यह ही कह देते है कि यह साहब तो यह ही है, बस हो गयी तारीफ। इससे बढ़कर और क्या शब्द हो सकते है? इस प्रकार देवो के सुख की बात यहाँ बता रहे है कि स्वर्गो में देवों का सुख स्वर्गो में देवो की ही तरह है। उसकी उपमा यहां अन्य गतियों में नही मिल सकती है। यहां यह बताया जा रहा है कि व्रत पालन करने वाले पुरूष परभव में कैसा सुख भोगा करते है।
इस काल के पुराण पुरूषो की परिस्थिति - भैया! न दो स्वर्ग सुखों में दृष्टि व्रत धारण करो तो यह मिलेगा। इस पंचमकाल में जो मुनीश्वर हो चुके है - अकलंकदेव, समंतभद्र, कुन्दकुन्द आदि अनेक जो आचार्य हुए है वे बड़े विरक्त थे, तपस्वी थे और ज्ञान की तो प्रशंसा ही कौन करे? हम लोग जब उनके रचित ग्रन्थों के हृदय में प्रवेश करे तो अनुमान कर सकते है, अन्यथा जैसे कहते है कि ऊंट अपने को तब तक बड़ा मानता है जब तक पहाड़ के नीचे न पहुंचे, ऐसे ही हम लोग अपने को तब तक ही चतुर समझते है और उत्कृष्ट वक्ता तब तक जानते है जब तक इन आचार्यो की जो रचनांए है उन रचनाओं में प्रवेश न पाया जाय। ऐसे ज्ञानवान, चारित्रवान्, तपस्वी साधुजन बतावो अच्छा कहां होगे इस समय? गुजर तो गये है ना, अब तो यहां हे नही वे गुरूजन, तो इस समय वे काहं होगे कुठ अंदाजा बतावो, यही अंदाज बतावोगे कि स्वर्ग में होगे। और स्वर्ग में क्या कर रहे होगे, मंडप भरा होगा, देवांगनाएं नृत्य कर रही होगी और ये कुन्दकुन्द, समन्त भद्र आदि के जीव बने हुए देव सिर भी मटका रहे होगं । क्या करे, व्रत धारण करने पर या तो मोक्ष होगा या स्वर्ग मिलेगा, तीसरी बात नही होती। कोई पूर्वकाल में स्वर्ग से ऊपर भी उत्पन्न हो लेते थे। हां एक बात है कि भले ही ये आचार्य वहां देव बनकर रह रहे है, पर वहाँ भी वे सम्यग्दृष्टि होगे तो उनमे आशक्ति न हो रही होगी, पर होगें वहां।
सम्यक्त्व सहित मरण की नियामकता - कर्म भूमि का मनुष्य मरकर, कर्मभूमि का मनुष्य बने तो उसके मरण समय में सम्यक्त्व नही रहता है। मरण समय में जिस मनुष्य के सम्यक्त्व है, उस सम्यक्त्व में मरेगा तो वहाँ सम्यग्दर्शन के रहते हुए मरण होगा तो देव ही होगा, हाँ एक क्षायिक सम्यक्त्व अवश्य ऐसा है कि उससे पहिले नरक आयु बाँध ली हो, तिर्यञच आयु बाँध ली हो या मनुष्य आयु बाँध ली हो, और फिर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर लिया तो नारक, तिर्यच, मनुष्य गति में जाना पड़ेगा, लेकिन नरक में जायगा तो पहिले नरक में, तिर्यच में जायगा तो भोगभूमिया में और जायगा तो भोगभूमियों में। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमिया, तिर्यच व मनुष्य भोग भूमिया में भी इन्द्रियजन्य सुख बहुत है।
दृष्टियोग का विशेष संकट - यहाँ सबसे बड़ा कष्ट एक यह भी है कि पुरूष स्त्री है अब उनमें काई मरेगा जरूर पहिले, मरेगे सभी हम आप, जो भी जन्मे हैं सबका मरण होगा, पर एक प्रसंग की बात यह देखो कि पति पत्नी में आधारभूत प्रेम है, किन्तु उनमें से एक कोई पहिले तो मरेगा ही ना? अब कल्पना करो कि पति पहिले मरता तो पत्नि कितना बिलखती और पत्नी पहिले मरती तो पति कितना विलखता, अर्थात् पति भी अपने को शून्य समझता। अब और क्या गति होगी सो बतावो? ऐसा यहाँ बहुत कठिनाई से हो पाता है कि
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