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________________ पति पत्नी दोनो संग ही गुजरें, पर भोगभूमिया में ऐसा ही होता हे, पति पत्नी दोनो एक साथ मरते है। अब कुछ अंदाज हो गया ना कि यह लौकिक सुखों की बात है कि दोनो मरें तो एक साथ मरे। मरण में हानि किसकी - भैया ! एक बात और विचारो कि किसी के मरने पर ज्यादा नुकसान मरने वाले का होता है कि जो जिन्दा रहने वाले है उनका होता है? इस पर जरा कुछ तर्कणा कीजिए। परिवार का कोई एक गुजर गया और परिवार के दो चार लोग अभी जिन्दा है तो यह बताओ कि मरने वाला टोटे में रहा कि जिन्दा रहने वाले टोटे में रहे? टोटे में तो जिन्दा रहने वाले रहे क्योकि मरने वाला तो दूसरे भव में गया, अच्छा, नया, रगा, चंगा, शरीर पाया और जो बचे हुऐ लोग है अथवा नाते रिश्तेदारजन है वे रोते है, विलखते है। तो टोटे में तो जिन्दा रहने वाले रहे। भोगभूमि में पति पत्नी दोनो का एक साथ मरण होता है। व्रत परिणाम के परिणाम का प्रतिपादन- व्रती पुरूष मरने के बाद स्वर्ग के सुख भोगते है, व्रत धारण करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन कोई पुरूष उस कहानी को सुनकर सोचे कि मै व्रत ग्रहण कर लँ, इससे स्वर्ग के सुख मिलते है, तो ऐसे स्वर्ग का सुख नही मिलता है क्योकि उसके अंतरंग में ममता बसी हुई है। वह अपने आत्मकल्याण के लिए व्रत नही ले रहा है, वह तो स्वर्ग सुख पाने की धुन बनाये हुए है सो व्रत ले रहा है। वह व्रत नही है। जो ज्ञानी संत वैराग्य के कारण व्रत ग्रहण करते है, जिनके सहज वैराग्य बनता है, ऐसे पुरूषो की कहानी है कि वे तो मोक्ष में जायेगे या स्वर्ग में जायेंगे। स्वर्ग में कैसा सुख है, उसकी बात इस श्लोक में चल रही है। व्रतजनित पुण्य का फल – सुख तो एक आत्मा का गुण है। जब रागादिक होते है तो सुख की दशा बदल जाती है या तो हर्षरूप संकटो का परिणमन होगा या दुःखरूप परिणमन होगा। जब तक यह आत्मा सांसरिक सुख और परतंत्रता का अनुभव करता है तब तक उसे बाधारहित आत्मीय आनन्द नही प्राप्त हो सकता है। हाँ कभी सातावेदनीय के उदय में कुछ इन्द्रिय सुख की प्राप्ति हुई, सातारूप परिणमन हुआ, अर्थात् कुछ दुःख कम हो गया तो उस दुःख के कम होने का नाम संसारी जीवो ने सुख रख लिया है। व्रत आदि करने से जो कषाय मदं होता है और मंद कषाय होने से पुण्य का संचय होता है तो उससे स्वर्ग आदि के सुख बहुत काल तक भोगने में आते है, लेकिन वास्तविक जो आनन्द है अनाकुलता का वह तो आत्मदृष्टि में ही है। सांसारिक सुख की उलझन - ये सांसारिक सुख तो उलझन है, वे देव सुख में मस्त रहते है तो वे मरकर एकेन्द्रिय भी बन सकते है। उनमें नियम है कि दूसरे स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय बन सकते है, उससे ऊपर 12 वे स्वर्ग तक के देव पशु पक्षी आदि तिर्यञच बन सकते है, उससे ऊपर के देव मनुष्य ही बन सकते है। देखो देवगति के देव कोई पेड़ तक बन जाते है, मरने के बाद ऐसी उनकी दुर्गति हो सकती है, और इतना तो समझना ही है कि वे मरकर नीचे ही गिरेंगे। आगम में देवों के मरने का नाम च्युत होना कहा गया है। देव च्युत होते है अर्थात् नीचे गिरते है और नारकी मरकर ऊपर आते है। 18
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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