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उन देवों में ऐसा हृषीकत, अनातंक व दीर्घकालोपलालिक सुख है, पर वास्तविक आनन्द नही है।
वास्तविक आनन्द - जो वास्तविक आनन्द है उसमें इन्द्रिय की आधीनता नहीं है, समय की सीमा नहीं है, क्षण भंगुर नही है, न किसी के प्रति चिंता है। इस आनन्द के जानने वाले पुरूष भी स्वर्ग के सुख को हेय मानते है और स्वानन्द के आनन्द को उपादेय मानते है। देवो का सुख देवों की ही तरह है, ऐसा कहने में ज्ञानियो को समाधान मिलेगा
और अज्ञानियो को भी समाधान मिलेगा। अज्ञानी तो उन शब्दो में सुख का बड़प्पन समझ लेगें और ज्ञानी उन्ही शब्दो में सुख को हेय समझ लेंगे। खैर, कैसा ही सुख ही, व्रतधारण के फल में स्वर्ग आदि के सुख मिलते है, इस बात का इस श्लाके में वर्णन है।
___ वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देंहिनाम् ।
तथा [ द्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि।।6।। सुख की क्षुब्ध रूपता के वर्णन का संकल्प - इससे पहिले श्लोक में देवो का सुख बताया गया था। उस सुख के सम्बंध में अब यहाँ यह कह रहे है कि यह सुख संसारी जीवों का जो इन्द्रिय जनित सुख है वह सुख केवल वासनामात्र से ही सुख मालूम होता है किन्तु वास्तव में यह सुख दुःखरूप ही है। भ्रम से जीव इसको आनन्द समझते है। ये भोग जिनको कि सुख माना है वे चित्त मं उद्वेग उत्पन्न करते है। कोई भी सुख ऐसा नही है जो सुख शान्ति से भोगो जाता हो। खुद भी इसका अनुभव कर लो। ये संसार के सुख क्षोभपूर्वक ही भोगे जाते है। भोगने से पहिले क्षोभ, भोगते समय क्षोभ और भोगने के बाद भी क्षोभ । केवल कल्पना से मोही जीव से सुख समझते है। आत्मा में एक आनन्द नाम का गुण है जिसके कारण यह आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप कहलाता है। उस आनन्द शक्ति के तीन परिणमन है – सुख, दुःख और आनन्द। सुख वह कहलाता है जो इन्द्रियो को सुहावना लगे, दुःख वह कहलाता जो इन्द्रियों को असुहावना लगे और आनन्द उसका नाम है जिस भाव में आत्मा में सर्व ओर से समृद्वि उत्पन्न हो।
सुख और आनन्द में अन्तर - यद्यपि सुख, दुःख और आनन्द, ये आनन्द गुण के परिणमन है, तथापि इन तीना में आनन्द तो है शुद्ध तत्व, सुख और दुःख ये दोनो है अशुद्ध तत्व। यह इन्द्रिय जन्य सुख आत्मीन आनन्द की होड़ नही कर सकता है। स्वानुभव में जो आनन्द उत्पन्न होता है अथवा प्रभु के जो आनन्द है उस आनन्द की होड़ तीन लोक तीन काल के समस्त संसारी जीवो का सारा सुख भी जोड़ लीजिए तो भी वह समस्त सुख भी उस आनन्द को नही पा सकता है। यह सांसारिक सुख आकुलता सहित है और शुद्ध आनन्द अनाकुलतारूप है। सांसारिक सुख में इन्द्रिय की आधीनता है। इन्द्रियां भली प्रकार है तो सुख है और इन्द्रियों में कोई फर्क आया, बिगाड़ हुआ तो सुख नही रहा, किन्तु आत्मीय आनन्द में इन्द्रिय की आवश्यकता ही नही है। हृषीकज सुख पराधीन है, नाना प्रकार के विषयो के साधन जुटें तो यह सुख मिलता है, परन्तु आत्मीय आनन्द पराधीन नही है, अत्यन्त स्वाधीन है। समस्त परपदार्थो का विकल्प न रहे, केवल स्वात्मा ही दृष्टि में