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रहे तो ससे यह आनन्द उत्पन्न होता है। इस इन्द्रियज सुख में दुःख का सम्मिश्रण है किन्तु आत्मीय आनन्द में दुःख की पहुँच भी नही। संसार का कोई भी सुख ऐसा नही है जिसमें दुःख न मिला हुआ है। धनी होने में सुख है। तो उसे भी कितने ही दुःख है। संतानवान होने का सुख है तो उस प्रसंग में भी कितने ही दुःख भोगने पड़ते है। संसार को कोई भी सुख दुःख कि मिश्रण बिना नही है ।सांसारिक सुख इस आनन्द के अंश भी नही प्राप्त कर सकता है।
वासनामात्र कल्पित सुख में बाधा और विषमता - भैया! सुख और दुःख की कल्पना उस ही पुरूष के होती है जिसमें ऐसी वासना बनी हुई है कि यह पदार्थ मेरा उपकारी है इसलिए इष्ट है और यह पदार्थ मेंरा अनुपकारी है इसलिए अनिष्ट है। ऐसा जब भ्रम उत्पन्न होता है तो उस भ्रम में आत्मा में जो भी संस्कार बन जाता है उसका नाम वासना है। ऐसा जब भ्रम उत्पन्न होता है तो उस भ्रम में आत्मा में जो भी संस्कार बन जाता है उसका नाम वासना है। संसारी जीव इन्ही वासनावों के कारण इन्द्रियसुख में वास्तविक सुख की कल्पना कर लेते है। यह भोगो से उत्पन्न हुआ सुख अनेक बाधावो से भरा हुआ है, पर आत्मा के अनुभव से उत्पन्न होने वाला आनन्द बाधावो से रहित है। यह इन्द्रिय जन्य सुख विषम है। कभी सुख बढ़ गया, कभी सुख घट गया, कभी सुख न रहा ऐसी इन भोगो के सुख में विषमता है, पंरतु स्व के अनुभव से उत्पन्न होने वाला आनन्द विषम नही है, वह एक स्वरूप है और समान है। सुख और दुःख में महान् अन्तर है। इस इन्द्रिय जनित सुख में मोहीजन भ्रम से वास्तविक सुख की कल्पना करते है।
सांसारिक सुखो की उद्वेगरूपता - यह हृषीकज सुख उद्वेग ही करता है। जैसे ज्वर आदि रोग चित्त को दुःखी कर देते है। ऐसे ही ये भोग भी चित्त को दुःखी कर देते है। मोही जन दुःखी हो जाते है और दुःख नही समझते है। जैसे चरचरी मिर्च खाने में सुख नही होता है, दुःख होता है, पर जिसे चटपटी मिर्च से मोह है वह दुःखी भी हो जाता है
और मिर्च भी मांगता जाता है, और लावो मिर्च। किस तरह का उनके मिर्च का भाव लगा है? क्या करण है कि उस मिर्च से सी-सी करते जाते, आंसू भी गिरते जाते, कौर भी मुश्किल से गुटका जाता, फिश्र भी मांगते है कि लाल मिर्च और चाहिए। ऐसे ही भोग के दुःख होते है, इन भोगो से कुछ भी आनन्द नही मिलता है, लेकिन मोहवश भोगो में ही यह आनन्द मानता है और उन्ही भोग के साधनो को जुटाने में श्रम करता है।
__परमतत्व के लाभ बिना कोरी दरिद्रता - जो मनुष्य भूख प्यास से पीड़ित है उन्हे सुन्दर महल या संगीत साज या कुछ भी चीज उनके सामने रख दो तो उन्हे रमणीक नही मालूम होती है। किसी भूख लगी हो उसका स्वागत खूब किया जाय और खाने को न पूछा जाये तो क्या उसे वे स्वागत के साधन रमणीक लगते है? नही रमणीक लगते है। जीव के जितने आरम्भ है वे सब आरम्भ तब सुन्दर लगते है जब खाने पीने का अच्छा साधन हो। कोई लोग ऐसे भी है कि घर में तो खाने-पीने का कलका भी साधन नही है और अपनी चटकमटक नेकटाई औश्र बड़ी सज धज, शान की बातें मारते, तो जैसे इस तरह के लोग कोरे पोले है, उनमें ठोस बात कुछ नही है। ऐसे ही समझिये कि जिस पुरूष में ज्ञान विवके