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________________ 10 दिनो को सौर कहते है और मरे के 12 दिनो को सूतक के दिन कहते है, मगर सूतक नाम उत्पन्न होने का है, जन्म में कहते है सूतक और मरने में कहते पातक। किसी के यहाँ बच्चा पैदा हुआ हो और जाकर कह दो कि अभी इनके यहाँ सूतक है तो वह बुरा मान जाता है, वह सोचेगा कि हमारे घर में किसी का मरना सोचते है क्योकि मरे पर सूतक कहने का रिवाज हो गया है। पर ऐसा नही मरे को पातक और पैदा होने को सूतक कहते हे। चाहे कुपूत हो, चाहे सुपूत हो सब सुत कहलाते है। लौकिक मित्र संसार के दोस्तों की बात देख लो एक कहावत है कि आप डूबते पाड़े तो डूबैं जजमान । गिरते हुए को एक धक्का लगा देते है ऐसी परिभाषा है दोस्तो की। कोई यह घटाते है कि जो दोस्त होते है वे अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दोस्त होते है, ठीक है, यह भी अर्थ है पर अध्यात्म में यह अर्थ लेना कि जो जिगड़ी मित्र है, हार्दिक मित्र है, निष्कपट है, संसार की दृष्टि में वह बिल्कुल स्वच्छ हृदय का है तो भी सिवाय मोहर्गत में गिराने के और करेगा क्या वह ? मित्र लोग विषयो के साधन जुटाने के लिए, संसार के गुड्ढो में गिराने के लिए, संसार के संकटो में भटकाने के लिए होते है । परमाथ से तो अपने मित्र है देव शास्त्र और गुरू । देव, शास्त्र, गुरू के सिवाय दुनिया में कुछ मित्र नही है। जैसे मित्र जन प्रसन्न हो गए तो क्या करा देगे? ज्यादा से ज्यादा दुकान करा देगे, विवाह करा देगें, तृष्णा की बाते लगा देगे । चाहिए तो वही पाव डेढ पाव अन्न और दो मोटे कपडे और तृष्णा ऐसी बढ जायगी कि जिसका अंत ही नही आता । कितने ही मकान बन जाये, कितना ही धन जुड़ जाय, कितने ही धन आने के जरिये ठीक हो जाये तिसपर भी तृष्णा का अंत नही आता । कभी यह नही ख्याल आता कि जो भी मिला है वही आवश्यकता से अधिक है। तो मोह में मित्र जन क्या करेगे; तृष्णा बढाने का काम करते है और संसार के गड्ढे में गिराते है । यह मूढ जीव मित्र को भी अपना मानता है । शत्रु यह व्यामोही शत्रु को भी अपना मानता है । दखिये विचित्रता कि यह अज्ञानी प्राणी शत्रु का ध्वंस करना चाहता है। शत्रु इसके लिये अनिष्ट बन रहा है, किन्तु मिथ्यात्व भाव की परिणति कैसी है कि शत्रु के प्रति भी यह मेरा शत्रु है, इस प्रकार अपनत्व को जोडता है। शत्रु को मिटाने के लिये अपनत्व को जोड़ रहा है। हद हो गई मिथ्यात्व की । यह मोही जीव मोह की बेहोशी में यह मेरा शत्रु है ऐसा मानता है । - मोह में भूल भैया ! मोह के उदय में यही होता है। अपने स्वरूप को भूलकर अपने भले बुरे का कुछ भी विवेक न रखकर बाहरी पदाथो मे अपनी तलाश करते है, मै कौन हूं, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे क्या करना चाहिए? जिन समागमो में पड़े हुए हो उन समागमो से, परपदार्थों से तुम्हारा कुछ सम्बधं भी है क्या ? किसी की भी चिंता नही करता है। ये सभी पदार्थ मेरी आत्मा से भिन्न है। इन पदार्थो में से किस पदार्थ में झुककर शांति हासिल कर ली तो बतावो ? पर के झुकाव में शान्ति हो ही नही सकती, क्योकि परकी और झुकाव होना यह साक्षात् अशान्ति का कारण है। ये सर्व भिन्न स्वभाव वाले है फिर इन्हे मै क्यो अपना मान रहा हूं ऐसी चित्त में ठेस इस जीव के मोह में हो नही पाती है। क्योकि 30
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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